बिट्टो  Mohanjeet Kukreja

बिट्टो

एक अत्यंत रोचक, अलौकिक तथा रोमांचकारी कहानी...

मेरा नाम मंजीत चावला है और यह कहानी आज से कुछ बीस साल पहले की है जब मैं और अर्जुन गिल्ल, मेरा सबसे ख़ास दोस्त, एसo आरo सीo सीo दिल्ली में बीo कॉमo सेकंड ईयर में पढ़ते थे। हम दोनों एक ही हॉस्टल में रूम- मेट्स भी थे।

मेरा जन्म अमृतसर के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था, जहाँ उन दिनों मेरे पिता जी का एक ख़ानदानी पापड़-वड़ियों का कारोबार हुआ करता था। अर्जुन जालंधर के एक बहुत संपन्न परिवार से था और उसके पिता रणवीर गिल्ल की शहर से थोड़ा दूर एक गाँव में ज़मीनें थीं। उसके दादा जी कभी उसी गाँव के सरपंच थे और पूरे इलाक़े में इस जमींदार परिवार की बहुत इज़्ज़त थी।

छुट्टियों में हम दोनों एक साथ ही घर जाते थे, वह रास्ते में जालंधर उतर जाता और मैं उसी ट्रेन से आगे अमृतसर तक जाया करता था। अर्जुन से ही अक्सर मैंने उनकी ज़मीनों की, हवेली की, लहलहाते खेतों की, मिट्टी की ख़ुश्बू की, पंप से निकलते ठन्डे पानी की और ताज़ा फल-सब्ज़ियों की बातें सुनी थीं। मैंने चूँकि यह सब कभी असल में देखा नहीं था, मैं हमेशा वहाँ जाने के सपने देखा करता था। हालाँकि यह और बात है कि वो लोग ख़ुद पिछले कुछ सालों से शहर में जाकर बस गए थे।

फिर एक बार क्रिसमस की छुट्टियों में मुझे यह मौक़ा मिल ही गया। प्लान कुछ ऐसा बना कि मैं भी अर्जुन के साथ पहले जालंधर स्टेशन पर ही उतर जाऊँगा और एक दिन वहाँ उनके गाँव में बिताकर, आगे अमृतसर निकल जाऊँगा। हमेशा की तरह स्टेशन पर अर्जुन के यहाँ से एक ड्राइवर गाड़ी लेकर उसे लेने आया हुआ था। हम दोनों मॉडल टाउन में स्थित उनके शानदार बंगले पर पहुँचे। इतना बड़ा घर और शानो-शौक़त देख कर मैं अभी हैरान हो ही रहा था कि अर्जुन ने बताया उनकी गाँव वाली हवेली तो और भी बड़ी थी!

अर्जुन के पिता रोज़ की तरह गाँव गए हुए थे, ज़मीनों की देखभाल के सिलसिले में। उसकी बड़ी बहन पिछले साल ही शादी के बाद कनाडा चली गई थी। मैं उनके यहाँ पहली बार ही गया था मगर उसकी मम्मी मुझसे बहुत अपनेपन से मिलीं और हम दोनों को अपने पास बिठा कर ख़ुद चाय-नाश्ता करवाया। उसके बाद जब हम बाहर उनके गार्डन में झूले पर बैठ कर बातें कर रहे थे तो अर्जुन बोला, "यार मंजीत, मुझे तो आज रात यहाँ रुकना ही पड़ेगा, मम्मी-डैडी के साथ; इतने दिनों बाद घर आया हूँ। तू भी आज यहीं रुक जा, कल चलते हैं गाँव।"
"नहीं भई", मैंने कहा, "मैं तो आज से ही देखूँगा तुम्हारी गाँव वाली ज़िन्दगी, कल मैंने वैसे भी चले जाना है अमृतसर!"
"ठीक है फिर, मैं ड्राइवर को बोलता हूँ तुझे छोड़ आएगा और मैं सुबह पहुँच कर मिलता हूँ तुझसे।" वह बोला, "फिर कल तुझे पूरा पिंड, मतलब गाँव, घुमा कर रात तक बस-स्टैंड तक छोड़ दूँगा!"
"बढ़िया! उम्मीद है वहाँ मेरी ख़ातिरदारी के लिए कोई न कोई होगा!"
"ऑफ़ कोर्स, यार!" अर्जुन ने कहा, "बिलकुल चिंता मत कर, वैसे भी मैं कल सुबह आ ही रहा हूँ ना…"

थोड़ी देर बाद ही मैं उनकी गाड़ी में बैठ कर बलराज पुर (अर्जुन का गाँव जिस का नाम शायद उसके दादा जी के नाम पर था) की तरफ़ बढ़ा जा रहा था। ड्राइवर नवीन मुझे रास्ते में हर अहम चीज़ दिखाता जा रहा था, समझाता जा रहा था। फिर हरियाली से भरपूर कुछ संकरी सड़कें, कोई सवा घंटे बाद हम एक भव्य हवेली के सामने खड़े थे। नवीन मुझे लेकर अंदर गया, वहाँ के केयर-टेकर शिब्बू काका से मिलवाया और उनको ख़ास हिदायत दे कर कि "यह अर्जुन साहब का दोस्त है, किसी तरह की कोई तकलीफ़ ना हो!" वापिस लौट गया I

अधेड़ शिब्बू काका ने मुझे बड़े स्नेह के साथ बिठाया और फिर एक बड़े से पीतल के गिलास में घर के दूध-दही से बनी लस्सी ला कर पिलाई।
"बेटा, तुम हाथ-मुँह धो लो", काका ने मुझे नीचे हॉल में ही बना एक ग़ुस्लख़ाना दिखाते हुए कहा, "तब तक मैं तुम्हारे लिए ऊपर एक मेहमानों का कमरा ठीक करवा देता हूँ।" फिर वो फ़ुर्ती से उठ कर शायद किसी नौकर को देखने निकल गए।

उस दो माले पर बनी पुरानी हवेली में ना जाने कितने कमरे थे और एक काफ़ी ऊँची मीनार भी, बाहर की तरफ़, जिसके गिर्द घूमती एक छोटी सी सीढ़ी ऊपर तक जा रही थी। सीढ़ी के मुहाने पर लोहे का एक दरवाज़ा था जिस पर एक मज़बूत ताला लटक रहा था। मैं जब ऊपर पहुँचा तो ज़ीने की दायीं ओर एक बड़ा सा कमरा खुला मिला, डबल बेड पर एक ताज़ा धुली, साफ़ चादर बिछी थी। एक तरफ़ रखी आबनूस की एक विशाल मेज़ पर एक ख़ूबसूरत फूलदान और एक जलती हुई टेबल-लैम्प। बाहर की तरफ़ खुलती खिड़की के शीशे में से हो चली शाम का अंदाजा हो रहा था। शीशा खोल कर बाहर देखा दूर तक खेतों के सिवा कुछ नज़र नहीं आया। हवा ठंडी थी, मैंने खिड़की बंद कर दी।

अंदर कमरे की दूसरी तरफ़ एक बड़ा सा अटैच्ड बाथरूम था, अंदर जा कर जायज़ा लिया, ज़रुरत की हर चीज़ बड़े सलीक़े से अपनी जगह मौजूद थी; साइड के एक स्टैंड पर साफ़, धुले हुए तौलिये टंगे थे। मैं वापिस कमरे में आया, बिस्तर पर लेट कर थोड़ा सुस्ताने लगा, उस बढ़िया जगह के बारे में सोचते हुए।

थोड़ी देर बाद काका कमरे में आए, "कुछ चाय-काफ़ी पियोगे बेटा?"
मैंने फ़ौरन कॉफ़ी के लिए हामी भर दी। वापिस जाते-जाते काका बोले, "रात को खाने में देसी मुर्गी खाओगे, और दाल-सब्ज़ी तो होगी ही?"
मैंने तुरंत हाँ कर दी, गाँव में आकर बढ़िया देसी मुर्गी खाने का मज़ा ही कुछ और होने वाला था!

सिर्फ़ पांच मिनट बाद काका हाथ में एक ट्रे उठाए कॉफ़ी और कुछ बिस्कुट वगैरह लिए फिर कमरे में आ गए। मैंने कॉफ़ी का कप उठाया ही था कि वो बोले, "वैसे तो अर्जुन तुम्हें कल लेकर जाएगा ही, चाहो तो आस-पास थोड़ा घूम आओ। अभी रात होने में वक़्त है, तुम्हारे आने तक खाना भी तैयार हो चुका होगा।"

विचार अच्छा था! मैंने ख़ाली कप मेज़ पर रखा और उठ कर बाहर की तरफ़ चल दिया। कोई एक-डेढ़ घंटा, अँधेरा होने तक, मैं यहाँ-वहाँ घूमता रहा; जो भी मुझे रास्ते में मिला, बड़ी ख़ुशी से, बड़े दिल से मिला, पता नहीं कैसे सब को जैसे पहले से पता था कि मैं हवेली का मेहमान था। शहर की भीड़-भाड़ से दूर, उस खुले, प्रदूषण-रहित वातावरण में साँस लेने का अनुभव ही कुछ अलग था।

वापिस हवेली पहुँचा, खाना तैयार था; सब कुछ बहुत ही अच्छा बना था, ख़ास तौर पर चिकन! थका हुआ था, मैं खा कर कब सो गया पता ही नहीं चला। दरवाज़ा भी शायद रात भर खुला ही रहा।

"भैया चाय!" बाहर पक्षियों की चहचहाट के अलावा एक और आवाज़ सुन कर अचानक मेरी आँख खुली तो देखा बिस्तर के पास एक १५-१६ साल की अल्हड़ सी लड़की चाय लिए खड़ी थी। मैंने उठकर कप पकड़ते हुए उसकी तरफ़ देखा। लड़की साधारण शक़्ल-सूरत की थी और रंग-बिरंगा सा एक लहंगा-चोली पहने हुए थी।
"शुक्रिया, तुम कौन?"
"मैं बिट्टो," उसकी आवाज़ में एक खनक थी, "शिब्बू काका की बेटी..."
"अच्छा!" मुझे पिछले दिन वह पूरी हवेली में कहीं नहीं दिखी थी। मैं चाय की चुस्कियाँ लेते हुए यह सोच ही रहा था कि तभी शिब्बू काका ने कमरे में क़दम रखा, चाय के साथ...बिट्टो दौड़ कर दरवाज़े की आड़ में खड़ी हो गई थी, कोई शरारत करने के अंदाज़ में।

"अरे बेटा, तुम्हें यह चाय किस ने दी?" काका हैरान थे।
"काका, आपकी बेटी ही तो लाई है यह चाय मेरे लिए।"
" क्या? कौन लाया है?"
"बिट्टो, आपकी बेटी, काका!"

शिब्बू काका के हाथ से चाय की ट्रे फिसल कर क्रॉकरी टूटने की आवाज़ के साथ ज़मीन पर जा गिरी! काका का चेहरा पीला पड़ गया था और अब वो बहुत हैरान परेशान से एक-टक मेरी तरफ़ देख रहे थे।

"क्या हुआ काका?", मैंने घबराकर उठते हुए पूछा, "आपकी तबियत तो ठीक है?"

काका बड़ी मुश्किल से अपने पर क़ाबू पाते हुए बोले, "बिट्टो तो तीस साल पहले ही ...

इसी हवेली की मीनार से गिर कर; कुछ गाँव वाले कहते हैं उसने ख़ुदकुशी की थी!"

मैंने चौंक कर दरवाज़े की तरफ़ देखा…

वहाँ कोई भी नहीं था!

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