एक ख़ामोश सुबह  AMIT Yadav

एक ख़ामोश सुबह

यह कहानी एक व्यक्ति के मन की व्यथा बताती हुई प्रतीत होती है। जो बरसों से एक शहर में रह रहा है मगर हालातों के चलते उसे अपना घर छोड़कर किसी दूसरे शहर में जाना पड़ रहा है। जिस दिन वो घर छोड़कर जाने वाला होता है उस दिन उसकी मनोदशा क्या होती है, उस पल वो कैसे महसूस करता है उसके मन में विचारोंका समंदर किस तरह से हिलोरें मारता है। ये कहानी उस पल उसके मन की स्थिति को समझने का एक छोटा सा प्रयास करती प्रतीत होती है।

आज मेरी आँखें अचानक ही खुल गई। मैंने फोन को ऑन किया तो अभी पाँच बजने में पूरे पंद्रह मिनट बाकी थे। खिड़की से बाहर झाँक कर देखा तो अंधेरे ने अभी भी रात का दामन थामा हुआ था। उजाला होने में अभी वक़्त था। पर ना जाने क्यों आज इतनी सुबह-सुबह मेरी आँखें खुल गयी थी। मैं असमंजस में था कि जो शख्स सात बजे से पहले बिना अलार्म के नहीं उठता आज वो अपने आप कैसे उठ गया। वो भी इतनी जल्दी। मैं बिस्तर छोड़ कमरे से बाहर आ गया, बाहर अभी भी सन्नाटे की चादर पसरी हुई थी। मैंने मौसम में हल्की मीठी ठंड का आभास किया। अक्सर बचपन में मैं सबसे पहले उठ जाया करता था ताकि सुबह की ताजी हवा को महसूस कर सकूँ। जो मेरे चेहरे से होती हुई मेरे दिल तक ठंडक पहुँचाती थी।

मगर आज बात कुछ और थी, वो सुबह की तरोताज़ा कर देने वाली हवा कहीं गुम थी। किसी के ख्यालों में या कुछ और बात थी मालूम नहीं। खैर मैंने इस बात पे ज्यादा ग़ौर नहीं किया, मैं घोर सन्नाटे में विलुप्त अंधेरे को महसूस कर रहा था। वो अँधेरा सीधा मेरे दिल तक पहुँच रहा था, मन आज जरा बेचैन मालूम पड़ रहा था। इसी उधेड़बुन में मैं चहलकदमी करने लगा। मगर आज कुछ अलग था, ना ही पंछियों का शोर, ना ही गली के कुत्तों की आवाज़ें। वैसे तो मुझे चुप्पी ज्यादा पसंद है मगर आज वो जैसे खाने को दौड़ रही थी। मैने अनुमान लगाया शायद उजाला होने पर सब ठीक हो जाए।

वक़्त गुज़ारने के लिए मैं चुपके से अपने लिए एक कप चाय बना लाया। मम्मी-पापा अभी भी नींद में थे। मैं चुपचाप बाहर छत पर आकर बैठ गया। वक़्त धीरे-धीरे गुज़रने लगा और मैं वक़्त के दरिया में बहते-बहते विचारो में डुबकी लगाने लगा। ज़िन्दगी के भी अपने फ़लसफ़े हैं, कब कहाँ किस मोड़ मुड़ जाए भला किसको पता। ज़िन्दगी मेरे मायने में एक पानी की धारा रूपी नदी की तरह है जो अंत में संघर्ष करते-करते अपनी मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता निकाल ही लेती है। आज बड़ी जल्दी उठ गया, क्या बात है- मेरे विचारों को चीरती हुई मेरे कानों पर एक आवाज़ ने दस्तक दी। मैंने मुड़कर देखा तो मम्मी कमरे के दरवाज़े पर खड़ी हुई थी। इससे पहले कि मैं कुछ कह पाता, उन्होंने कहा - तू जल्दी से फ़्रेश हो जा मैं तेरे लिए चाय बना देती हूँ। इतना कहकर वो किचन में चली गईं।

मम्मी के जाने के बाद मैंने आसपास देखा तो सब वैसा ही था। मगर उजाला अब सिर्फ उजाला न रहकर सुबह में तब्दील हो चुका था। सूरज आसमान के मस्तक पर बिंदी की तरह चमक रहा था। मगर हवा अब भी खामोश थी। मैंने पेड़ों की तरफ देखा, आज पत्तों में कोई हलचल ना थी। मानो जैसे सदियों से रूठे हुए हों। मैंने गली में झाँककर देखा सब शांत था बस कुछ कुत्ते मुँह उठाकर आते जाते लोगों को देख रहे थे, वो भी बिल्कुल शान्त। आवाज़ और हलचल जैसे इस समाँ से ही गायब थी। पेड़ों पर पंछी इधर-उधर उछल कूद रहे थे। मगर उनकी चूँ-चूँ की आवाज़ें जैसे कहीं विलुप्त हो गईं थी। ऐसा लग रहा था मानो मेरे कान उन हलचलों को महसूस करना चाहते हों, उन आवाज़ों को सुनने को सदियों से बेताब हों मगर हर तरफ सन्नाटा सिर्फ सन्नाटा था।

मैं हैरान था, इस असमंजस भरी स्थिति को मैं समझने की कोशिश कर ही रहा था कि पिताजी की आवाज़ आई, बरखुदार अगर प्रकृति से आपकी बातें खत्म हो गईं हों तो सामान बाँध लें। हमें आज दोपहर ही ये शहर छोड़ के निकलना है। मैं कुछ देर निस्तब्ध खड़ा रहा। उसके बाद पापा ने शायद एक लाइन और कही थी मगर मैं साफ़-साफ़ कुछ सुन नहीं पाया। मैंने अपने आसपास देखा, अपने चश्मों को साफ किया। वहाँ किसी चीज़ की कमी थी मगर किसकी? फिर कुछ देर यूँ ही शून्य में ताकने के बाद आभास हुआ, कमी थी नहीं कमी होने वाली थी। ये पेड़, पौधे, हवाएँ, पक्षी ये सारा शहर शायद आदत डाल रहे थे मेरे बिना जीने की। इन सभी को शायद वक़्त की खामोशी का अंदाज़ा हो चला था। एक ख़ामोश सुबह मेरे सामने थी, वो मेरी कल्पनाओं की वास्तविकता थी या कुछ और मालूम नहीं, तभी पापा की एक और आवाज़ आई और मैं विचारों के तूफ़ान को संभालते हुए सामान बाँधने निकल पड़ा।

अपने विचार साझा करें


  परिचय

"मातृभाषा", हिंदी भाषा एवं हिंदी साहित्य के प्रचार प्रसार का एक लघु प्रयास है। "फॉर टुमारो ग्रुप ऑफ़ एजुकेशन एंड ट्रेनिंग" द्वारा पोषित "मातृभाषा" वेबसाइट एक अव्यवसायिक वेबसाइट है। "मातृभाषा" प्रतिभासम्पन्न बाल साहित्यकारों के लिए एक खुला मंच है जहां वो अपनी साहित्यिक प्रतिभा को सुलभता से मुखर कर सकते हैं।

  Contact Us
  Registered Office

47/202 Ballupur Chowk, GMS Road
Dehradun Uttarakhand, India - 248001.

Tel : + (91) - 8881813408
Mail : info[at]maatribhasha[dot]com