प्यार भी नफरत पैदा करता है VIVEK ROUSHAN
प्यार भी नफरत पैदा करता है
प्यार कोई मज़हब या धर्म देख कर नहीं करता, प्यार एक ऐसा एहसास है जो कभी भी किसी को किसी से भी हो सकता है। इसलिए प्यार में धर्म और मज़हब को लाकर नफरत नहीं फैलानी चाहिए।
डुमरा गाँव में दो मज़हब के लोग रहते थे । इनमें ज्यादातर लोग हिन्दू थे और कुछ कम मुसलमान कौमें रहा करती थीं । शहर से १५० की.मि दूर इस गाँव में बहुत खुशहाली रहती थी। मुख्य तौर पर डुमरा गाँव में रहने वाले लोगों के पास खेतीबाड़ी का ही काम था। मुसलामानों के मुक़ाबले हिन्दुओं के पास ज़्यादा खेती थी, और ज्यादातर मुसलमान छोटे-छोटे व्यापार किया करते थे। जहाँ कहीं भी हिन्दू-मुस्लिम के बीच कोई विवाद की घटना होती थी, तो वहाँ के लोगों को डुमरा गाँव का प्यार और दो कौमों के बीच के भाईचारे का उदहारण दिया जाता था। डुमरा गाँव को लोग मिसाल के तौर पर इस्तेमाल किया करते थे। मिसाल देने लायक भी था डुमरा गाँव और वहाँ के रहने वाले स्थानीय लोग। हिन्दुओं का त्यौहार हो या मुसलमानों का त्यौहार हो, डुमरा गाँव में त्यौहारों के समय खुशहाली का माहौल हुआ करता था। हिन्दू लोग जहाँ मुस्लमान भाईयों के यहाँ ईदी खाने जाते, तो वहीं दिवाली में मुसलमान लोग हिन्दू भाईयों के यहाँ पूरी-पकवान खाते। देखने में ऐसा प्रतीत होता जैसा, मनो डुमरा गाँव में इंसानों का मेला लगा हो। एक-दूसरे के प्रति इज़्ज़त, आपार प्यार शायद ही अगल-बगल के किसी गाँव में हुआ करता था।
डुमरा गाँव के एक मौलवी साहब थे जो वहाँ के उच्च विद्यालय में शिक्षक के रूप में स्थापित थे पिछले पंद्रह वर्षों से। मौलवी साहब के पड़ोसी थे एक हिन्दू जिनको लोग सरपंच साहब के नाम से जानते थे, क्योंकि उन्होंने सरपंच का चुनाव जीता था।सरपंच साहब को चुनाव जिताने में भी मौलवी साहब का बहुत बड़ा योगदान था। मौलवी साहब ने अपने लोगों से सरपंच साहब के लिए वोट माँगा था और गुज़ारिश की थी लोगों से सरपंच साहब को वोट देने के लिए। मौलवी साहब एक पढ़े-लिखे और इज़्ज़तदार व्यक्ति थे, इसलिए इनकी बातों को लोग तरजीह दिया करते थे। लोग मौलवी साहब का आदर भी किया करते थे, हिन्दू भी उतना ही मान-सम्मान देता जितना मुसलमान लोग देते थे। मौलवी साहब की एक ही दिनचर्या हुआ करती थी, वो रोज़ सुबह-सुबह अपने गाँव के बगल के छोटे बाज़ार में जाते और वहाँ चाय पीते और लोगों से बात विचार किया करते। नौ बजे वो स्कूल चले जाते और शाम के पाँच बजे तक वहीं रहते। स्कूल से लौटने के बाद वो गाँव के कुछ लोगों के यहाँ कोचिंग पढ़ाने भी जाते। उनमें से ही एक लोग थे सरपंच साहब। सरपंच साहब की एक बेटी थी जिसका नाम था सुरजी। सुरजी एक सुन्दर और सुशील युवती थी। सरपंच साहब ने सुरजी का नाम तो विद्यालय में लिखवा दिया था पर वो स्कूल नहीं जाती थी जैसी गाँव की और लड़कियाँ भी स्कूल नहीं जाती थी। सुरजी सिर्फ घर में मौलवी साहब से ही कोचिंग पढ़ा करती थी। मौलवी साहब की भी उम्र बढ़ रही थी, वो अब थक जाते थे। इस वजह से उन्होंने अपने बेटे आशिफ को बोल दिया था कि कोचिंग पढ़ाने के लिए शाम के ६ः बजे सरपंच साहब के यहाँ आ जाया करे। ऐसा मौलवी साहब ने घर जा कर दोबारा आशिफ को न पढ़ाने की जरुरत पड़े इस वजह से किया था। सरपंच साहब को भी इससे कोई ऐतराज़ नहीं था।
दोनों बच्चे सुरजी और आशिफ एक हीं क्लास में पढ़ते थे। दोनों १२ वीं की परीक्षा देने वाले थे। साथ में पढ़ने के दौरान सुरजी और आशिफ एक-दूसरे से आकर्षित होने लगे। दोनों को एक-दूसरे का साथ पसंद आने लगा। आशिफ और सुरजी ने एक दिन गाँव से बाहर मिलने की योजना बनाई। अगले दिन सुबह सुरजी अपने पिताजी से बोल कर बाहर जाने में कामयाब हो गई अपने सहेलियों के साथ, और आशिफ भी वहाँ समय से पहुँच गया था। सुरजी की सहेलियाँ, सुरजी और आशिफ को अकेले छोड़कर बाज़ार घूमने चली गयीं। उधर सुरजी और आशिफ जाकर एक दूकान में बैठ गए और आपस में बातें करने लगे। शाम हुई और दोनों अपने-अपने घरों की ओर रवाना हो गए। दोनों को एक दूसरे से प्यार हो गया था। आशिफ भी रात-दिन सुरजी के बारे में सोचता रहता और सुरजी भी आशिफ से अकेले में मिलने के बहाने ढूंढते रहती। छुप-छुपकर दोनों मिलते रहे कुछ दिनों तक। थोड़े दिन में उनकी १२ वीं का इम्तिहान आ गया, दोनों ने अपने-अपने इम्तिहान दिए। जब इम्तिहान का रिजल्ट आया तो आशिफ पास हो गया था और सुरजी फेल। सुरजी के फेल होने पर सरपंच साहब ने सुरजी को डांटा और उसका बाहर घूमना-फिरना भी बंद कर दिया। सुरजी परेशान रहने लगी, उसी बीच एक दिन जब घर में बातें हो रही थी तो सुरजी ने सरपंच साहब को शादी की बात करते सुना। सरपंच साहब सुरजी की शादी करने की योजना बना रहे थे। सुरजी बहुत डर गयी थी। सुरजी ने अपनी सहेली से आशिफ तक ये बात पहुँचाई। आशिफ भी शादी की बात सुन कर परेशान होने लगा। उधर मौलवी साहब आशिफ को शहर भेजने की योजना बना रहे थे उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए। १०-१५ दिन बाद सुरजी की सहेली ने आशिफ और सुरजी का मुलाक़ात करवाया। बहुत दिनों के बाद मिलने की वजह से सुरजी की ऑंखें नम हो गयीं थी और आशिफ के होंठो पर एक छोटी सी मुस्कान थी। दोनों ने बहुत देर तक एक-दूसरे को जकड़े रखा अपनी बाँहों में, चुप-चाप। दोनों दुनिया, समाज से अन्ज़ान प्यार के समंदर में डूबे हुए थे। थोड़े देर बाद सुरजी ने आशिफ को अपने साथ शहर ले जाने की बात कही, थोड़ा असमंजस में आने के बाद आशिफ तैयार हो गया और दोनों ने गाँव छोड़कर शहर जाने की योजना बना ली। इसकी खबर किसी को नहीं थी सिवाय सुरजी की सहेली के।
दोनों एक दिन गाँव से शहर भागने में कामयाब हो गए। जब ये बाते सरपंच साहब को पता चली कि उनकी बेटी सुरजी मौलवी साहब के बेटे आशिफ के साथ भाग गयी है, तो उनका खून खौल गया। यही हाल मौलवी साहब का भी था। सुरजी और आशिफ को ढूँढने के बजाए सरपंच साहब और मौलवी साहब दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। बहुत लड़ाई-झगड़े हुए, दोनों तरफ से गोलियाँ चली, दोनों तरफ के लोगों की जानें गयी, बहुत लोग जख्मी हुए, बहुत खून-खराबा हुआ। डुमरा गाँव जो जाना जाता था दो मज़हबों के बीच के प्यार, भाईचारे और मोहब्बत के नाम से, वो पल भर में ही नफरत के चुंगल में फँस गया और डुमरा गाँव खण्डर हो गया। अब न वहाँ लोग मिलकर ईद मानते हैं न ही मिलकर दिवाली। जो आपसी प्यार था वो नफरत में बदल गया।
इन सब फ़सादों से दूर सुरजी और आशिफ अपने प्यार भरे जीवन को जी रहे थे। न किसी ने उन्हें ढूँढ़ने की कोशिश की, न हीं उन दोनों ने कभी अपने गाँव आने की कोशिश की। इस तरह एक गाँव जो कभी दो मज़हबों के बीच प्यार, भाईचारे का प्रतीक हुआ करता था, वो अपने ही बच्चों की वजह से नफरत में बदल गया।