बेरोज़गारी SANTOSH GUPTA
बेरोज़गारी
ट्रेन के उस बुजुर्ग की बातें समयहीन थी। उसकी विचारधाराएँ किसी एक समय या परिस्थिति में चरितार्थ नहीं थी। समय कुछ भी हो, पीढ़ी कुछ भी हो, स्थितियाँ कुछ भी हों पर सफलता का राज़ नहीं बदलने वाला। सफलता बेरोज़गारी की समस्या की मुहताज़ नहीं हो सकती। सफलता केवल आपकी मेहनत पर निर्भर करती है।
बेरोज़गारी की समस्या का आलम ये है कि मैं जब कल वाराणसी से प्रयागराज की रेल यात्रा कर रहा था तो एक बुजुर्ग व्यक्ति ने मुझसे एक मुश्किल सा सवाल पूछ लिया। दरअसल सवाल तो आसान ही था पर उसका उत्तर जरा कठिन था। उत्तर शायद कठिन ना भी होता पर उस बुजुर्ग ने उस प्रश्न के उत्तर के दो विकल्प भी दे दिए थे। उन विकल्पों के पशोपेश में पड़कर सवाल को कठिन महसूस कर रहा था। प्रश्न स्वंय में उत्तर को समाहित किए हुए था। प्रश्न था - "बेटे, प्रयागराज में आप कोई शैक्षणिक अध्ययन कर रहे हैं या किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी?" बुजुर्ग के इस प्रश्न को सुनकर मैं थोड़ी देर के लिए विस्मित ज़रूर हुआ पर जल्द ही मेरी व्याकुलता भारत में चल रहे चर्चित विषय बेरोज़गारी को याद करते ही खत्म हो गई। अधिक समय न लेते हुए मैंने उत्तर देने का सफल प्रयास किया। जिस तरह के आत्मविश्वास के साथ उस बुजुर्ग ने मुझसे प्रश्न किया था मैं उनके वस्तुनिष्ठ प्रश्न को विषयनिष्ठ नहीं बनाना चाहता था और शायद चर्चा को बढ़ावा ना देने की चाह में मैंने उत्तर दे दिया - "दोनो।" लेकिन शायद वह मेरी गलतफ़हमी थी, मेरा उत्तर चर्चा का अंत नहीं अपितु प्रारम्भ था। जीडीपी के विकास दर से भी अधिक सुस्त अंदाज़ में बुजुर्ग ने कहा - "दोनों नहीं हो पाएगा!"
बुजुर्ग के उस नकारात्मक विचारों वाली निराशाजनक प्रतिक्रिया के देखकर मैं फिर से विस्मय को गले लगा रहा था। मुझे अहसास हो चुका था अब ये बहस लम्बी चलने वाली है। सामान्य तौर पर देश की गंभीर समस्याओं पर रेलयात्रा के दौरान होने वाली चर्चाओं से जरा दूर रहने वाला व्यक्ति होने की वजह से मैं उस बुजुर्ग की बातों में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था क्योंकि उसकी प्रतिक्रिया के बाद के आभास को मैं महसूस कर चुका था और जल्द से जल्द ट्रेन के प्रयागराज पहुँचने की ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था।
जन-चर्चाओं से दूर रहने की प्रवृत्ति के साथ-साथ बुज़ुर्गों के सम्मान की मेरी विशेषता मुझे उस व्यक्ति की भावनाओं का आदर करने को मजबूर कर गई। मैंने अपने जिज्ञासा भरे प्रश्न से उस संवेदनशील प्रतिक्रिया का सम्मान किया। मैंने पूछा- "सर, ऐसा क्यों" बेरोजगारी की समस्या से भी अधिक गंभीर मुद्रा में बुजुर्ग ने जवाब दिया - "नहीं हो पाएगा, प्रतियोगिताओं के दबाव में युवा पढ़ने का तरीका भूल गए हैं। समझते हैं कॉलेज की पढ़ाई तो हो ही जाएगी जैसे-तैसे, प्रतियोगिता की तैयारी अधिक ज़रूरी है।"
अपने व्याख्यान को विस्तृत रुप देते हुए उसने कहा- "हमारे समय में लड़के पढ़ते थे। आजकल तो कॉलेज में बस टाईम पास करते हैं लड़के। लड़कों को लगता है कॉलेज में एडमिशन होना ही डिग्री पाने के लिए पर्याप्त है।" उस बुजुर्ग की इन बातों से लगा वो बेरोज़गारी की समस्या से अधिक वह इस बात से चिंतित हैं कि आज की युवा पीढ़ी शिक्षा के नाम पर बस नौकरी की योग्यता पाना चाहती है। उसकी बातों से यह जाहिर था कि वह यह कहना चाहता था कि शैक्षणिक अध्ययन को गम्भीरता से किया जाए तो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की मशक्कत शायद थोड़ी कम हो जाए।
अब उसके सवाल का तात्पर्य भी मैं समझ चुका था। वह कहना चाहता था कि हम स्नातक या किसी भी पढ़ाई को नाम मात्र के लिए करते हैं और प्रतियोगिता की तैयारियों मे लग जाते हैं। शैक्षणिक अध्ययन किसी भी प्रतियोगिता का आधार है, हम उसे अनदेखा नहीं कर सकते। वहीं दूसरी तरफ वह बुजुर्ग देश में नौकरी की समस्या पर भी प्रकाश डाल रहा था। उस व्यक्ति को मैं अब गम्भीरता से सुनने लगा था। सोचने लगा था ट्रेन थोड़ी लेट हो जाए जिससे मैं ऐसे अनुभवी व्यक्ति के महान और प्रेरणाशील विचारों के प्राप्ति का लाभ उठा सकूँ।
उस व्यक्ति की एक विशेषता जो मेरे दिल को छू गई वह यह थी कि बुजुर्ग होते हुए भी वह युवा पीढ़ी को बहुत ही अच्छी तरह समझ रहा था। मैं यह भी कह सकता हूँ कि बुजुर्ग होते हुए भी वह बातें और सोच वर्तमान की करता था। अक्सर ऐसे बुजुर्ग मिल जाते हैं जो युवाओं को अपनी घिसी-पिटी बातों से प्रभावित नहीं कर पाते हैं। पर वह मुझे प्रेरित और उत्प्रेरित करने में बिल्कुल सफल था। उसकी ऐसी विचारधाराओं से मुझे कुछ संदेह हुआ और अपने संदेह को यकीन में बदलने के लिए उनसे यह सवाल पूछ ही लिया कि - "सर आप शिक्षक हैं क्या?" यह शायद मेरे अनुभव की देन कह लो या फिर मेरे अंदर की एक शिक्षक वाली प्रवृत्ति, वह बुजुर्ग सरकारी उच्च विद्यालय का एक सेवानिवृत्त शिक्षक था। उसके शिक्षक होने की जानकारी की पुष्टि होते ही मेरे हृदय में उस बुजुर्ग के लिए सम्मान गुणित हो चुका था। शिक्षण और नौकरी से सम्बंधित कई प्रभावशील बातों को बताते हुए वह इस बात पर ज़ोर दे रहा था कि युवाओं को कॉलेज के पाठ्यक्रम को पढ़ने की ज़रुरत है। मैं उस बुजुर्ग के विचारों से सुगंधित वातावरण में रम चुका था, जब ट्रेन रुकी और बुजुर्ग ने कहा - हम प्रयागराज पहुँच गए।
ट्रेन के उस बुजुर्ग की बातें समयहीन थी। उसकी विचारधाराएँ किसी एक समय या परिस्थिति में चरितार्थ नहीं थी। समय कुछ भी हो, पीढ़ी कुछ भी हो, स्थितियाँ कुछ भी हों पर सफलता का राज़ नहीं बदलने वाला। सफलता बेरोज़गारी की समस्या की मुहताज़ नहीं हो सकती। सफलता केवल आपकी मेहनत पर निर्भर करती है।
उस बुजुर्ग की बातों की कुछ ऐसी ही छाप मेरे मस्तिष्क में जीवंत हो उठती है।