काजोल Anupama Ravindra Singh Thakur
काजोल
पशुओं में भी मानव जैसी संवेदनाएँ होती हैं। उन्हीं संवेदनाओं से प्रेरित होकर मैंने यह कहानी लिखी है।
एक दिन संध्या समय जब मैं और मेरी बेटियाँ पाठशाला से लौटीं तो देखा कि घर के आँगन में दरवाजे के पास एक बिल्ली विश्राम कर रही थी। उसे देखते ही मेरी छोटी बेटी खुशी के मारे उछल पड़ी। गेट खोलने पर वह हमसे डरकर पीछे-पीछे सरकने लगी। मेरी बेटी उसे हाथ लगाने का प्रयास करती पर वह डरकर पीछे सरकती जाती। उतने में मेरी बड़ी बेटी तुरंत भीतर से दूध ले आई और उसके सामने रख दिया। दूध को देखते ही वह म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए समीप आकर दूध पीने लगी। उसका डर अब पूरी तरह से समाप्त हो चुका था। वह अब खुशी-खुशी मेरी बेटियों को हाथ लगाने दे रही थी। रात होने तक वह वहीं बैठे रही, किसी काम से मैं बाहर आती तो वह मेरी ओर मुँह किए म्याऊँ-म्याऊँ कर चिल्लाती और अपने शरीर को मेरे पैरों से रगड़ने लगती। अब यह उसका नित्य का क्रम बन चुका था। रात में पता नहीं वह कहाँ निवास करती परंतु जैसे ही हम स्कूल से लौटते वह हमारी प्रतीक्षा में व्याकुल हमारे स्वागत के लिए तैयार रहती। जब तक दूध ना मिले कोलाहल मचा देती। कभी दरवाजा खोलने में देरी हो तो वह जोर-जोर से आक्रांत कर मेरी परिक्रमा करने लगती और धीरे से मेरे पैर के अंगूठे को अपने मुंह में लेकर काटने लगती तथा अपना क्रोध प्रकट करती। उसकी काली एवं गहरी आँखों को देख कर मैंने उसका नाम काजोल रखा। काजोल का शरीर दिन-ब-दिन मुझे भारी प्रतीत होने लगा था। मैंने अनुमान लगाया कि कहीं इसके पेट में बच्चे तो नहीं है। शायद मेरा अनुमान सही था, वह दूध पीकर थके हुए स्त्री के समान सीधे ठंडे फर्श पर लेट जाती।
कुछ दिनों बाद ग्रीष्मावकाश प्रारंभ हो गया और काजोल का आना अचानक बंद हो गया। एक-दो बार मुझे उसकी याद अवश्य आई पर धीरे-धीरे मैं भी उसे भूल गई। पाठशाला की छुट्टियाँ चल रही थीं, मेरी ननद भी छुट्टियाँ मनाने मायके आई हुई थी। बच्चे खूब उधम मचा रहे थे। उनको काम में व्यस्त करने के लिए मैंने अपनी बड़ी बेटी से छत पर जाकर कपड़े सुखाने के लिए कहा। पहले तो उसने मना कर दिया पर जोर से आवाज निकालने पर पूरी पलटन को साथ में लेकर वह छत पर चली गई। घर में थोड़ी शांति हुई। मैंने और मेरी ननद ने थोड़ा आराम करने का सोचा ही था कि छत से बच्चे जोर-जोर से चिल्लाने लगे, "मम्मी जल्दी ऊपर आओ, जल्दी ऊपर आओ।" हम दोनों घबरा गए और तुरंत सीढियों की ओर दौड़ पड़े। छत पर पहुँचे तो देखा कि दो छोटे-छोटे बिल्ली के खूबसूरत बच्चे मेरी बड़ी बेटी के गोद में थे। हमें देखते ही वे खुशी से बताने लगे, "देखो ना माँ कितने सुंदर बच्चे हैं।" मैंने कहा, "इन्हें इस तरह गोद में मत लो, उनके बाल कपड़ों पर लग जाते हैं।" पर किसी ने भी मेरी एक न सुनी और सभी बच्चे उन्हें गोद में लेने के लिए उतावले हो रहे थे, यहाँ तक कि मेरी ननद ने भी वही किया। सचमुच बच्चे थे भी बड़े खूबसूरत। छोटा सा मुँह और बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें, रोएदार सुनहरे बाल तथा झब्बेदार पूँछ। उनका लघु गात देख कर लग रहा था जैसे दो-तीन दिन पहले ही उनका जन्म हुआ हो। बला की चंचलता थी उनके शरीर में। एक क्षण भी वे बच्चों के हाथ में टिक नहीं रहे थे, इधर से उधर दौड़ रहे थे। काजोल वहीं चुपचाप बैठकर सब कुछ देख रही थी। जैसे बच्चों की परवरिश की सारी जिम्मेदारी हम पर छोड़ दी हो। बच्चों के मन में बार-बार यह प्रश्न उठ रहा था कि यह छत पर कैसे रहेंगे? वे दौड़कर एक टोकरा ले आए। टोकरी में कपड़ा बिछाया और दोनों शावकों को उसमें बिठाया और साथ ही हिदायत भी दी कि यहाँ से कहीं ना जाना परंतु दूसरे क्षण में वे टोकरी से बाहर निकलकर इधर-उधर दौड़ने लगे। मैंने बच्चों को समझाया, "क्या तुम एक जगह बैठे रह सकते हो, जो इन्हें एक जगह बैठने के लिए कह रहे हो। जैसे-तैसे मैं अपने बच्चों को नीचे लेकर आई। बच्चे नीचे आकर अपने खेल में मग्न हो गए। कब संध्या हुई और फिर रात, इसका पता ही नहीं चला।
आधी रात में अचानक तेज वर्षा प्रारंभ हो गई और बिजली भी चली गई। बाहर साँय-साँय कर तेज हवाएँ चलने की आवाज सुनाई दे रही थी। मुझे काजोल का स्मरण हो आया। मैंने अपने पति से कहा, "छत पर बिल्ली के बहुत छोटे बच्चे हैं, वे बारिश में मर जाएँगे।" पति हँसने लगे और कहा, "पागल हो क्या? पशुओं को खराब मौसम का पता चल जाता है। उनकी माँ पहले ही उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले गई होगी। वह डाँटेंगे इसलिए मैं चुप रही। जैसी ही भोर हो गई, मैं और बच्चे भी कौतूहलवश छत पर पहुँच गए। वहाँ न काजोल थी न काजोल के बच्चे। टोकरी और उसमें रखा हुआ कपड़ा गीला हो चुका था। मैंने बच्चों से कहा, "शायद, वह बच्चों को कहीं और ले गई है।" हम सब थोड़े से चिंतित एवं मायूस होकर नीचे आ गए। दोपहर का भोजन करने के बाद बच्चे ऊपर के कमरे में खेलने चले गए और मैं अपनी ननद के साथ आराम करने लगी। तभी मेरी बड़ी बेटी जोर से दौड़ते हुए नीचे आई और कहा, "माँ अपने रेन हार्वेस्टिंग पाइप में से बिल्ली के बच्चों की आवाज आ रही है।" मुझे धक् सा हुआ। मैं दौड़कर दीवार से सटे पाईप के पास जाकर नीचे की ओर कान लगाकर सुनने लगी। सचमुच अंदर से बिल्ली के बच्चों की आवाज आ रही थी। मैंने सोचा अब ये बच्चे नहीं बचेंगे।
वर्षा जल संचयन का पाईप छत से प्रारंभ होकर सीधा जमीन तक पहुँचा हुआ है और ओवरफ्लो ना हो इसलिए बीच में से ज्वाइंट देकर कुछ हिस्सा बाहर रास्ते पर निकाला हुआ है। मन में विचार आया कि अगर ये बच्चे हारवेस्टिंग वाले गड्ढे में चले गए तो? इस बुरे विचार को मैंने मन से बलपूर्वक निकाल दिया। हम सब परेशान थे, समझ में नहीं आ रहा था उन्हें कैसे निकालें? मैं, मेरी ननद और बच्चे हम सब परेशानी में नए-नए उपाय सोच रहे थे कि उतने में काजोल भी वहाँ आकर जोर से चिल्लाने लगी। वह बार-बार मेरा पैर काटने लगती और इधर-उधर पूँछ फुला कर घूमती, जोर-जोर से आवाज करने लगती। उसकी आँखों मे चिंता एवं निराशा, करुणा स्पष्ट झलक रही थी। वह चिल्ला-चिल्ला कर मेरी परिक्रमा करने लगी। मैंने उसके सिर पर हाथ फेरकर उसे शान्त करने का प्रयास किया। पाईप कई जगह से जुड़ा हुआ था, मैंने मन बना लिया था कि प्लंबर को बुलाकर पाइप काटेंगे। नुकसान हुआ तो चलेगा। पर बच्चे बचने चाहिए। मैंने बाहर जाकर रास्ते पर निकले पाईप में झाँका पर कुछ दिखाई ना दिया। केवल आवाज़ सुनाई दे रही थी। हमारा शोर सुनकर पड़ोसी भी वहाँ आ गए। पड़ोसी के घर आए हुए दो लड़कों ने मुझसे कहा, "आंटी इस जॉइंट को खोल कर देखते हैं। मुझे तो घबराहट के मारे कुछ सूझ नहीं रहा था। मैंने उन्हें पूरी स्वतंत्रता दी। उसने जोर लगाकर जॉइंट खोलने का प्रयास किया पर जॉइंट इतना मजबूत था कि खुल ही नहीं रहा था। उस लड़के ने कहा, "आंटी पाइप तोड़ना होगा। मैंने कहा, "ठीक है। तोड़ दो।" मैंने उसे हथौड़ा लाकर दिया। उसने धीरे से ज्वाइंट पर मारा और फिर हाथ से खींचने लगा अचानक जॉइंट में से पाईप अलग हो गया। मैंने राहत की साँस ली। पाइप दो हिस्सों में बँट चुका था। मैंने पाईप के पहले हिस्से में झाँक कर देखा तो पूँछ नजर आई। मैंने थोड़ा सा हाथ अंदर डालने पर पूँछ हाथ में आ गई। मैंने जोर से पकड़ कर खींचा । काजोल का बच्चा जोर से चिल्ला रहा था। मैंने उसकी परवाह नहीं की। जैसे ही बच्चा बाहर आया, सभी बच्चे खुश हो गए और उसे लेने दौड़े। अभी भी दूसरा बच्चा अंदर ही था। हमने दूसरे सिरे में झाँक कर देखा तो वह वहाँ नहीं था। मेरी बेटी ने कहा, माँ आप इस तरफ से लकड़ी डालकर उसे डराओ ताकि वह बाहर रास्ते के सिरे से निकले और पाईप के मुहाने आ जाए। मैंने ऐसे ही किया, बच्चा डर के आगे जाने लगा और रोड की तरफ निकले पाइप के मुहाने आ गया। मेरी बेटी ने अंदर हाथ डालकर उसे खींच लिया। दोनों बच्चे बहुत ही सहमे और डरे हुए नजर आ रहे थे। अब उन्हें देखकर उनकी माँ का चिल्लाना भी बंद हो गया था। उसके समीप छोड़ने पर वह उनके शरीर को वत्सल्य से चाटने लगी। दोनों पैर पसारे आँगन में वह शान्त बैठे गई। लग रहा था अब उसे कोई चिंता नहीं है। मेरी बड़ी बेटी बच्चों को छत पर लेकर गई, क्योंकि आँगन में छोड़ने पर बच्चे बाहर रास्ते पर आ जाते और हमारे गेट के बाहर हमेशा दो-तीन कुत्ते बैठे रहते हैं। छत पर छोड़कर उसने सबसे पहले पाइप के मुँह पर कपड़ा ठूँस दिया ताकि बच्चे फिर से पाइप में न जाए।