ग्रामीण चुनाव का एक परिदृश्य Abhishek Pandey
ग्रामीण चुनाव का एक परिदृश्य
चुनाव के समय में प्रत्याशियों और मतदाताओं की मनोदशा का हास्यात्मक वर्णन।
बहुत दिनों बाद मैं शहर से गाँव लौटा था। गाँव में प्रवेश करते ही मुझे कुछ आमूल चूल परिवर्तन दिखे। पिछली बार जब एक साल पहले आया था तो जो मंदिर और मस्जिदें खंडहर बन चुकी थीं, आज उन सबकी रंगाई-पुताई हो रही थी। मेरा आश्चर्य तब और बढ़ा जब मैंने देखा कि झोपड़ी तानकर रहने वाला रामसिंह जो अपना पेट ही बहुत मुश्किल से पाल पाता था, वो आज देशी तो छोड़ो अंग्रेजी शराब के नशे में धुत है। जो बुजुर्ग अपनी अंतिम घड़ियाँ गिन रहे थे और जिनके पास कोई फटकता तक न था आज उनके आसपास देख-रेख करने वालों की भीड़ जमा थी। इन्हीं सब आश्चर्यों से अवाक मैं गाँव के अंदर पहुँचा। मैंने देखा कि मेरे चाचा जी किसी बड़ी लम्बी चौड़ी भीड़ के साथ मेरी ही ओर आ रहे थे। दूर तक उठ रहे गगनभेदी [जिंदाबाद भाई जिंदाबाद, अबकी बार..... ] नारों को सुनते ही आभास हुआ कि ये कोई साधारण भीड़ नहीं बल्कि चुनावी रैली है।
चाचाजी को उस चुनावी रंग से बचाकर घर ले जाना भी बहुत बड़ी चुनौती था। खैर जैसे-तैसे मैं उन्हें अपने साथ घर लाया। अब तक मुझे अपने उन सारे आश्चर्यों के जवाब मिल गए थे जो गाँव आते समय मैंने देखें थे। थोड़ा सा समय नाश्ते पानी में लगा और फिर गाँव के चुनावी समर के प्रतिद्वन्दियों की चर्चा ने जोर पकड़ा। चाचाजी से ज्ञात हुआ कि इस बार चुनावी मैदान में दस प्रत्याशी उतर रहे हैं। कुछ तो विदेश कमाने गए थे वो भी इस बार ताल ठोंक रहे हैं। कुछ प्रत्याशी ऐसे भी हैं जिन्हें यह स्पष्ट रूप से पता है कि उन्हें हारना ही है पर वो कहते हैं - हार में न जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं। कुछ विरले ऐसे भी हैं जो यह भी जानते हैं कि बाहरी लोगों के मत तो छोड़ो, परिवार तक के मत उन्हें नहीं मिलेंगे फिर भी वो द्वंद्व हेतु सज्ज हैं। पूछो तो कहते हैं - यही तो निष्काम कर्म है जो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि कर्म करो फल की चिंता मत करो। मैंने मन ही मन सोचा, कर्म योग तो नहीं हाँ हास्य योग जरूर है।
अब थोड़ा सा प्रत्याशियों के बदले व्यवहार पर चर्चा कर लेते हैं। होली दीवाली जैसे पर्व भी जिस शत्रुता को समाप्त न कर पाएँ वो इस चुनावी महापर्व ने समाप्त कर दी। प्रत्याशी अपने पुश्तैनी दुश्मनों को भी बड़े प्यार से गले लग रहे हैं। शिष्टाचार तो अपने चरम पर है, पहले तो प्रत्याशी पैर लागो कहते थे अब तो चरण पकड़ कर लेट जाते थे और तब तक न छोड़ते थे जब तक व्यक्ति यह न कह दे कि भैया, तुम्हीं को वोट देंगे। और प्रत्याशियों के अपने घर में चाहे बुढ़िया माँ मर रही हो पर दूसरे की माँ को अगर कुछ बुखार या हरारत है तो उसे फिर साधारण जगह नहीं दिखाएँगे वरन दिल्ली, लखनऊ के अस्पतालों पर ही सीधा भरती कराएँगे।
अब कुछ बात मतदाताओं की भी कर लेते हैं - मैं यह देख कर बड़ा असमंजस में पड़ा था कि कुछ व्यक्ति हर प्रत्याशी की रैली में ही जाते थे, हर प्रत्याशी की दावतों में उनकी हिस्सेदारी होती थी। जब भी कोई प्रत्याशी उनसे कहता - भैया इस बार ध्यान रखना तो वे तपाक से उत्तर देते - अरे कैसी बात कर रहे हो ये भी कोई पूछने की बात है, हमारा वोट आपको ही जाएगा। एक बार ऐसे ही एक मतदाता से मैंने साहस करके पूछा - भैया, आप तो सबकी रैलियों में और दावतों में जाते हैं, वैसे किसको वोट दोगे। वह भाई साहब बोले - "सुनो सबकी, करो अपने मन की।"