घात  VIMAL KISHORE RANA

घात

घात एक रिश्तों के इर्द-गिर्द बुनी मानवीय भावनाओं पर आधारित कहानी है। दोस्ती, प्यार और उस पर हालातों के बुने हुए जाल में कौन, किसकी 'घात' लगा ले, कोई कह नहीं सकता। घात ऐसे ही रिश्तों के विश्वास या विश्वासघात की कहानी है।

“और कमांडर साहब, कब से मोर्चा संभाला” जानी पहचानी आवाज़ पर विवेक ने जैसे ही मुड़ कर देखा, उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आ गयी”। यह शशि था! उसका बचपन का दोस्त। बचपन में साथ में क्रिकेट खेला, जवानी में साथ कॉलेज गए और अभी तक गहरी दोस्ती क़ायम थी। “बस यार कल ही आया, सोच ही रहा था कि तू कहाँ गायब है अभी तक” शशि में आए बदलावों को भाँपते हुए विवेक ने जवाब दिया। “वज़न बढ़ाना शुरू कर दिया क्या?” विवेक ने आँखों से उसकी बढ़ती तोंद की तरफ इशारा किया। “अबे यार क्या बताऊँ, जब से प्रमोशन मिला है, कंपनी वालों ने गधा बना रखा है। कब सुबह होती है और कब रात, पता ही नहीं चलता। फिर थकान मिटाने के लिए बियर भी कुछ ज्यादा ही हो गयी” थोड़ा ठहर के, रात 11 बजे लौटा था, फिर तुझे परेशान करना कुछ ठीक नहीं लगा”। शशि ने अपना हाल बयां किया। “अबे उल्लू, प्रमोशन की खबर तो ऐसे बता रहा है, जैसे कोई घाटा हो गया हो”। और दोनों हँस पड़े। इतने में कल्पना ने चाय की ट्रे के साथ कमरे में प्रवेश किया। “शशि भैया, आज का मेरा दिन तो आपने फिर से चुरा लिया”, कल्पना ने चुटकी ली। “अरे भाभी शादी के बाद तो आपने विवेक को मुझसे पूरा का पूरा चुरा लिया है, अब एक दिन तो मेरा भी बनता है कि नहीं” शशि के जवाब पर तीनों हँस पड़े। कल्पना चाय की ट्रे रख कर चली गयी।

कल्पना के जाने के बाद विवेक ने बैग में से शराब की बोतल निकाल के मेज़ पर रखते हुए बोला, “ले संभाल अपनी अमानत”! शशि की आँखों में शराब की बोतल देख कर चमक आ गयी। “मेरी नहीं, हमारी अमानत, आज रात तो खुलेगी यह!” शशि ने शरारत भरी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया। बोतल की पैकिंग को देखते हुए, “पर तू तो इस बार स्कॉच लाने वाला था।” शशि ने पूछा। “अबे हम फ़ौजियों को स्कॉच कहाँ चढ़ती है”... विवेक के जवाब पर दोनों फ़िर से हँस पड़े।

विवेक और शशि पड़ोस में ही रहते थे। दोनों फ़र्स्ट इयर में थे जब विवेक को इंडियन आर्मी में चयन हो गया था। विवेक के पिता भी आर्मी से रिटायर्ड थे और उसका भी आर्मी में ही जाने का मन था। शारीरिक तौर पर मजबूत, लंबे कद और चौड़े सीने का स्वामी, विवेक अपने साथियों पर ज्यादा काबिल साबित होता था। समझ और निर्णय क्षमता में भी शुरू से अग्रणी। इसलिए उसे कमांडर ट्रेनिंग के लिए भेजा गया। ट्रेनिंग को एक खेल की तरह लेने वाला विवेक जल्दी ही एक कमांडर की हैसियत से ड्यूटि पर तैनात हो गया। माँ-बाबूजी ने उसे पैरों पर खड़ा देख उसका विवाह कल्पना से करा दिया। कल्पना पढ़ी-लिखी व रूपवान तो थी ही साथ ही ग्रहकार्य में दक्ष और मृदुभाषी भी थी। सास-ससुर का दिल उसने जल्दी ही जीत लिया साथ ही विवेक को भी अपने प्रेम-पाश में बांध लिया। विवेक के बाबूजी चाहते थे कि विवेक, कल्पना को अपने साथ आर्मी केंट ले जाए और साथ ही रहे। लेकिन माँ-बाबूजी का ख्याल करके उसने कल्पना को घर पर ही रखने का निर्णय लिया। हालांकि कभी-कभी कुछ दिनों के लिए वो कल्पना को अपने साथ ले भी जाता। विवेक और कल्पना की शादी को 2.5 साल होने को थे। लेकिन अभी तक उनके कोई संतान नहीं थी। दरअसल ड्यूटि के कारण विवेक अपने जीवन में स्थिरता महसूस नहीं कर पा रहा था। लेकिन अब विवेक की माँ के बार-बार कहने पर उन दोनों ने संतान के लिए मन बना लिया था।

इधर शशि ने स्नातक करने के बाद एम.बी.ए कर लिया और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में जॉब करने लगा। शशि की दो बड़ी और एक छोटी बहन थी। कमजोर आर्थिक हालात के चलते शशि की जॉब लगने के बाद उसने ही दो बहनों की शादी की ज़िम्मेदारी निभाई और खुद की उम्र शादी के लिए निकलती चली गयी। वैसे भी शशि शादी जैसी व्यवस्था में विश्वास नहीं करता था। वह अपने करियर को लेकर कुछ ज्यादा ही जागरूक था। यही कारण था कि उसकी उम्र के लगभग सभी दोस्तों की शादी के बाद भी वो अभी तक कुँवारा ही था।

“इस बार तो तरसा ही दिया आपने! पूरे 6 महीने बाद मिलन हो रहा है”। कल्पना मिलन के लिए नव-युगल की तरह उत्साहित थी। “अब अगले एक महीने तक सिर्फ मैं और तुम! “विवेक ने कल्पना की आंखो में आँखें डालते हुए कहा। “वैसे तुम्हें क्या चाहिए? बेटा या बेटी!” कल्पना ने विवेक की तरफ शरारत से देखा। “एक परी जो बिलकुल तुम्हारी तरह हो”। विवेक ने कल्पना के सुंदर चेहरे को हाथों में भरते हुए कहा। तो चलो अब देर किस बात की? कल्पना के होठों में छिपी मुस्कान देख कर विवेक भी मुस्करा दिया। और धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे में लीन होने लगे। विवेक जब भी छुट्टियों पर घर आता, माँ और बाबूजी बेटे-बहू को अक्सर घर में अकेला छोड़ देते। कभी बाज़ार के बहाने तो कभी पड़ोस या रिश्तेदारी में जाने के बहाने अक्सर घर से बाहर ही रहते। ताकि पति-पत्नी एक-दूसरे को पूरा वक़्त दे पाएँ। और इसी तरह विवेक और कल्पना अपने दाम्पत्य जीवन को भरपूर जीने की कोशिश में रहते। शायद एक सैनिक की शादीशुदा जिंदगी ऐसे ही आगे बढ़ती है।

“अब तू कल्पना को अपने साथ ही ले जा। कब तक हमारे चक्कर में यूं फंसे रहोगे”। विवेक के बाबूजी ने कहा। थोड़ा रुककर फिर विवेक की तरफ देखते हुए – “तेरी माँ और मैं अभी बुड्ढे तो हो नहीं गए जो अपना ख्याल न रख सके। और फिर अगर हमें ज़रूरत होगी तो खुलकर कहेंगे न बेटा तुझसे”। अब विवेक के पिता अपनी पत्नी की आँखों में स्वीकर्ति प्राप्त करने के प्रयास में थे। विवेक की माँ पूरी तरह इस बात के पक्ष में नहीं थी। कल्पना के रहने से उनको बहुत आराम था। लेकिन विवेक की समस्या को वो ज़रूर समझ पा रही थी। “हाँ, बेटा अब तुम लोग अपनी ज़िंदगी जियो। जब घर में नया मेहमान आ जाएगा तो बेशक भेज दियो कल्पना को वापस”। इस बार विवेक की माँ ने कहा। विवेक बड़ी शांति से उनकी बात सुन रहा था। थोड़ी देर शून्य में देखते रहने के बाद उसने अपनी चुप्पी तोड़ी। “ठीक है बाबूजी, आप कहते हैं तो मैं इस बार वापस जा कर व्यवस्था करता हूँ। अगली छुट्टियों में कल्पना को साथ ही ले जाऊंगा”। कल्पना भी पर्दे के पीछे से सारी बात सुन रही थी। उसने पहले भी एक-दो बार विवेक से साथ ले जाने को कहा था। लेकिन विवेक हर बार उसे प्यार से समझाइश करता कि माँ-बाबूजी उन दोनों से ही बहुत प्यार करते हैं। अगर दोनों ही उनकी नज़रों से दूर रहेंगे तो उनका मन नहीं लगेगा। पति की सभी बातें मानने वाली कल्पना इसके बाद ज्यादा ज़ोर नहीं देती और विवेक की बात की हामी भर देती।

विवेक की छुट्टियों में बस एक हफ्ता बाकी था। इस दौरान कल्पना के साथ-साथ माँ-बाबूजी का प्यार पाकर वह बहुत संतुष्ट महसूस कर रहा था। विवेक के आने पर कल्पना उस पर भरपूर प्यार न्योछावर करने का प्रयास करती और साथ ही माँ-बाबूजी की सेवा में भी कोई कमी नहीं रहने देती। माँ-बाबूजी भी उसे अपनी बेटी की तरह ही मानते थे। बहू और सास-ससुर का स्नेह भरा रिश्ता देखकर विवेक का मन गदगद हो उठता। इस तरह कल्पना के प्रति उसके मन में बहुत गहरा लगाव होता चला गया। उसे याद आता कि जब वो कल्पना को देखने गया था तो उसके रूप-यौवन पर कैसे मोहित होता चला गया था।

“भैया इधर.......” आवाज़ की दिशा में विवेक ने ध्यान दिया तो उसे अनामिका ट्रेन के गेट पर मुस्कराती हुई खड़ी दिखाई दी। प्रतिउत्तर में विवेक का चेहरा भी खिल उठा। विवेक ने चुस्ती से उसकी ओर रुख किया और उसका सामान उठा लिया। “कैसी है मेरी गुड़िया” विवेक ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए पूछा। “मैं तो एक दम फ़र्स्ट क्लास! लेकिन आप इस बार बहुत दुबले हो गए! ठीक से खाना नहीं खा रहे क्या आज-कल”। अनामिका ने विवेक की ओर निहारते हुए कहा। “अरे पागल इसे फिट होना कहते हैं”। विवेक ने अनामिका के सर पर हल्की चपत लगाते हुए कहा। “चल घर चल कर बात करेंगे”। ये कहते हुए विवेक एक हाथ में उसका सामान और एक हाथ से भीड़ को उसके आगे से हटाते हुए आगे बढ़ चला।

अनामिका विवेक की छोटी बहन थी। अभी 6 महीने पहले ही उसकी शादी हुई थी। रास्ते में विवेक ने महसूस किया कि अनामिका कुछ उलझन में है। विवेक को लगा कि अभी ससुराल में एडजस्ट हो रही होगी। “अनु, हितेश जी कैसे हैं”, उनकी जॉब कैसी चल रही है?” घर में सब अनामिका को प्यार से अनु बुलाते थे। “बहुत बढ़िया चल रही है भैया, इस साल उनका प्रमोशन ड्यू है। मुझसे भी कह रहे हैं कि बी.ऐड कर लूँ”। अनामिका ने मुस्करा के कहा। “सब लोग तुझसे खुश तो है न”। विवेक ने फिर शंका जताई। सब लोग खुश है भैया और मैं भी बहुत खुश हूँ वहाँ। सब ठीक चल रहा है भैया।” विवेक को लगा की अनामिका फिर भी कुछ छुपा रही है। विवेक के तजुर्बे ने इस बात को भाँप लिया था। “फिर तू मुझे परेशान क्यों लग रही है और बात तू कुछ बता नहीं रही”। विवेक ने इस बार सीधा ही पूछने की कोशिश की। “नहीं भैया ऐसी कोई बात नहीं”! अनामिका ने मुस्कुराना चाहा। विवेक ने इस बार गंभीर लहजे में उसकी आँखों में पढ़ना चाहा। विवेक की तीक्ष्ण नज़रें अनामिका इस बार झुठला नहीं पायी। “हाँ भैया, मैं थोड़ी तो परेशान हूँ, लेकिन मैं आपको कैसे बताऊँ; मुझे आपसे कुछ बात करनी है भैया”! अनामिका ने जारी रखा। “अरे.... अनु आ गयी”। माँ ने घर के दरवाजे से ही आवाज़ लगाई। गाड़ी की खिड़की खुली थी सो अनामिका का ध्यान माँ की ओर चला गया और वो खुशी से चहक उठी। उसने फुर्ती से गाड़ी का दरवाजा खोला और माँ से लिपट गयी।

अनामिका और विवेक की बात अधूरी रह गयी थी। विवेक अब थोड़ी कशमकश में था। वह थोड़ी बैचनी महसूस कर रहा था। वह अनामिका से बात करना चाह रहा था। उसे वो संशय चुभ रहा था जो उसने अनामिका की आँखों में देखा। अनामिका के घर आने पर माँ उससे जी भर के बात करके उससे उसका हाल ले लेना चाहती थी। इसी वजह से विवेक उसे आवाज़ नहीं दे पा रहा था। आखिरकार दोपहर के खाने के बाद विवेक ने अनामिका को आवाज़ दे कर बुला ही लिया। कल्पना भी बाज़ार गयी थी। इसलिए उसे एकांत में बात करने का मौका सही लगा।

“हाँ अनु, बोलो अब क्या प्रोब्लेम है”। हितेश ने कुछ कहा, तेरे सास-ससुर का स्वभाव तेरे साथ कैसा है या उन्हें मुझसे तो कोई नाराजगी नहीं। खुल के बता अपने भाई को, मैं सब संभाल लूँगा, चिंता मत कर”। विवेक एक साथ बोलता चला गया। विवेक के इतने सवालों से अनामिका थोड़ी विचलित तो हुई लेकिन कहीं न कहीं वो इस सब के लिए तैयार भी थी। “भैया इससे बेस्ट ससुराल तो हो ही नहीं सकता। हितेश बहुत ही सुलझे हुए इंसान हैं। और मेरे सास-ससुर और जेठानी ने घर के माहौल को काफी हल्का बना रखा है। दीदी तो जैसे मेरी बड़ी बहन ही बन गयी हैं। कोई प्रोब्लेम नहीं है भैया। आप जैसा समझ रहे हैं, वैसा कुछ भी नहीं”। अनामिका ने सपष्ट किया। ”फिर बात क्या है अनु? मज़ाक तो नहीं कर रही मेरे साथ?” विवेक को अब थोड़ा गुस्सा भी आ रहा था। थोड़ी देर दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा। “भैया, इतनी बड़ी बात मैं आपसे कैसे करूँ? समझ नहीं आ रहा। मैं इतने दिनों से आपसे बात करना चाह रही थी। लेकिन बोलने में डर लगता है”। अनामिका अभी भी झिझक रही थी। “एक मिनट, कहीं तू अपनी भाभी से तो नाराज़ नहीं। कुछ बोला उसने”? विवेक की झटपटाहट अनामिका को और डरा रही थी।

थोड़ी देर फिर चुप्पी साधने के बाद अनामिका थोड़ा साहस जुटा कर बोली, “हाँ भैया, बात भाभी की ही है। उन्होने मुझसे कुछ नहीं बोला जो मुझे बुरा लगे, लेकिन....!” लेकिन क्या अनु? विवेक ने थोड़े ऊंचे स्वर में पूछा। लेकिन मुझे उन पर शक है भैया”। अनामिका इस बार विवेक की आँखों में देख रही थी। “शक! कल्पना पर! अनु तू जानती है कि तू क्या बोल रही है? तुझे पता है न कि तेरी भाभी मेरे लिए कितनी इंपोर्टेंट है? विवेक ने कहा। माँ-बाबूजी उसे अपनी बेटी मान चुके हैं। और फिर तुझे भी तो छोटी बहन की तरह प्यार दिया है उसने”। विवेक अब अनामिका को समझा रहा था। उसे कल्पना पर पूरा भरोसा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि अनामिका ऐसा क्यों कह रही है। अनामिका के बचपने से भी वो अच्छे से वाकिफ था। “भैया मैं आपकी गृहस्थी पर कोई आंच नहीं आने देना चाहती। मैं जानती हूँ कि आप भाभी के साथ बहुत खुश हो; लेकिन अब आपकी बहन भी बड़ी हो चुकी है”। थोड़ा रुक कर। “पिछली बार मैंने भाभी के स्वभाव में बड़ा फर्क महसूस किया है”। अनामिका ने शांत लहजे में कहा। “कैसा फर्क अनु, क्या बोले जा रही है? ये सब तेरा वहम है।” विवेक ने झुँझला कर कहा। “काश कि वहम ही हो, लेकिन भैया, मैंने इस बात को बड़ी ही गहराई से जाँचने की कोशिश की है। भाभी का अचानक ही फोन में इतना बिज़ी हो जाना, मेरे और माँ-बाबूजी के प्रति ज़रूरत से ज्यादा ही केयरिंग हो जाना। कई बार तो झिझक होने लगती थी”। थोड़ा रुक कर.... “जब मैंने भाभी से फोन के बारे में जानना चाहा तो उन्होने दूर की किसी बहन के बारे में बताया। मैं उनकी लगभग सभी बहनों को जानती हूँ। यहाँ तक कि उनकी चाचा-ताऊ, मौसा-मामा या बुआ की भी ऐसी कोई लड़की नहीं जिसे मैं नहीं जानती। उन्होने एक शादी में खुद ही सबसे मिलवाया था। अचानक ये नयी बहन कहाँ से आ गयी, जिससे इतनी ज्यादा बात हो रही है। उनके स्वभाव से एक नाटक की बू आने लगी है”। अनामिका ने सारी बात विस्तार से खोलने की कोशिश की।

“अनु, बस बहुत हो गया, जाओ माँ के पास। कल्पना भी आती ही होगी, उसने सुन लिया तो कलेश हो जाएगा”। विवेक ने लगभग फोर्स करते हुए अनामिका को कमरे से बाहर कर दिया। “लेकिन भैया, मेरी बात समझो.......” विवेक ने अनामिका के मुह पर हाथ रख कर उसकी आगे बोलने की कोशिश को नाकाम कर दिया। इतने में कल्पना दरवाजे से आती दिखाई दी। “भाई-बहन मिल कर मेरी क्या बुराई कर रहे हैं...”? कल्पना ने जब हंस कर अनामिका को चुटी काटी तो अनामिका थोड़ा सकपका गयी। लेकिन जल्द ही उसने अपनी घबराहट पर काबू पाने की कोशिश करते हुए एक हल्की मुस्कान दी।

विवेक की छुट्टी पूरी हो चुकी थी। वह वापस जाने की तैयारी में लगा हुआ था। हितेश भी अनामिका को लेने के लिए आ रहा था। माँ फिर से उदास हो रही थी और बाबूजी अपनी भावनाएँ छिपाये बैठे थे। कल्पना की आँखें शाम से ही नम थी। पर अनामिका अभी भी कुछ उधेद्बुन में थी। विवेक ने कल्पना से पूछा-“हितेश जी पहुँचने वाले हैं, नाश्ते की तैयारी कर ली हैं न”? कल्पना जिस भाव में थी उसी भाव में उसने हामी भर दी।

सुबह 6:00 बजे विवेक की ट्रेन थी। विवेक के साथ कल्पना, हितेश और अनामिका उसे छोडने रेल्वे स्टेशन आए थे। विवेक ने हितेश का रुख करते हुए कहा- “हितेश जी अनामिका में अभी भी थोड़ा बचपना बाकी है। उसे थोड़ा समय दीजिएगा। वैसे..... हमारे संस्कारों में कोई कमी नहीं”। विवेक के हाथ जोड़ने से पहले ही हितेश ने उसके हाथ अपने हाथों में ले लिए। “ऐसा तो कुछ भी नहीं भैया, अनामिका के रूप में तो मुझे गृहलक्ष्मी मिली है। अनामिका ने हमारे घर के अधूरेपन को भर दिया है। आप इसकी चिंता बिलकुल मत कीजिये। अनामिका अब मेरी ज़िम्मेदारी है”। इतने में विवेक की ट्रेन आ गयी। हितेश ने विवेक का सामान उठा लिया। चलते-चलते हितेश और अनामिका ने विवेक के पैर छु कर आशीर्वाद लिया। उसके बाद हितेश और अनामिका थोड़ी दूर खड़े हो गए। वो दोनों विवेक और कल्पना को एक आंशिक एकांत देना चाहते थे। ठीक है, चलता हूँ! विवेक ने कल्पना की ओर देख कर कहा। कल्पना और विवेक ने एक दूसरे की आँखों में देखा और प्रेम की मूक भाषा में बात करके विदा ली। दो दिन बाद अनामिका भी मन में एक कसक और कुछ सवाल लिए घर से विदा हो गयी। जीवन फ़िर से उसी पुरानी पटरी पर दौड़ने लगा। कल्पना सास-ससुर की और विवेक देश की सेवा में पुनः समर्पित था।

“तुमसे तो सब्र ही नहीं होता। तुमसे कहा था न मैंने, एक हफ्ता रुक जाना। कल ही अनामिका गयी है। इतना भी क्या बेसब्रपन”? तुम फंसवाओगे किसी दिन”। कल्पना घर की छत पर एक परछाई से बात कर रही थी। छत पर एक कमरा था जिसको गेस्ट-रूम की तरह इस्तेमाल किया जाता था। गर्मियों में कल्पना उसी रूम को सोने के लिए इस्तेमाल करती थी। “जानेमन अब मेरे सब्र का और कितना इम्तेहान लोगी। एक महीने से सब्र ही तो कर रहा हूँ। अब और मत तड़पाओ”। उस शख्स ने प्रतिउत्तर दिया। “मैंने कहा न जाओ आज। मेरा मन नहीं है”। कल्पना ने उसे टालना चाहा लेकिन उसने पलक झपकते ही कल्पना को जबरन बाहों में भरकर आलिंगनबद्ध कर लिया। “प्यार से बात समझ नहीं आती अब तुम्हें। विवेक के आने से कुछ ज्यादा ही सर चढ़ जाती हो”। वो शख्स कल्पना पर हावी होता चला गया और कल्पना को मजबूरन उसे पानी की टंकी के पीछे की तरफ खींचना पड़ा। यहाँ से कुछ भी दिख पाना मुश्किल रहता था इसलिए पानी की टंकी के पीछे वाली जगह पर दोनों अक्सर छुपकर मिलते थे।

इतने में कल्पना को किसी के होने का आभास हुआ। जैसे ही उसने मुड़ कर देखा, एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल से होते हुए होंठ से खून निकाल लाया। इससे पहले कि थप्पड़ का असर कम होता एक और थप्पड़ उसके बाएँ गाल पर रसीद हो चुका था। दरअसल विवेक ने ये चोरी पकड़ ली थी। उसने कल्पना को बालों से खींचकर उस आदमी से अलग किया। ये आदमी और कोई नहीं बल्कि शशि था। लेकिन विवेक को उसे देखकर कोई अचरज नहीं हुआ। विवेक ने शशि को अपने घर की तरफ आते और पीछे की दीवार पर सीधी लगाकर चढ़ते देख लिया था। शशि के पास भागने का कोई मौका नहीं बचा था। कुछ समझ पाने से पहले ही विवेक ने उसे एक इंजेक्शन लगा दिया और धीरे-धीरे शशि बेहोश हो गया।

शशि को जब होश आया तो उसने अपने आप को एक अंजान, बदबूदार खंडहर में एक कुर्सी से पूरी तरह बंधा हुआ पाया। उसके मुँह में रुमाल ठूँसा होने की वजह से वह मुँह से आवाज़ नहीं कर सकता था। होश में आते ही एक अंजाने डर ने उसे बैचेन करना शुरू कर दिया। वह जानता था कि विवेक को झूठ और धोखे से सख्त नफरत है। इसलिए अब विवेक उसे आसान सज़ा नहीं देगा। उसने रस्सियों से छूटने की कोशिश की, चिल्लाना भी चाहा लेकिन इस कोशिश के एवज में वह कुर्सी समेत एक तरफ गिर गया। मजबूर हालत में डर के साथ तकरीबन 15-20 मिनट उसी हालात में प्रयत्न करने बाद उसे किसी के आने की आहट सुनाई दी। विवेक ने आकर उसकी कुर्सी को सीधा किया और उसके मुँह से कपड़ा निकाल दिया।

“देख विवेक मैं..... तेरा बचपन का दोस्त हूँ। मुझ....झ...पे रहम खा मेरे भाई। मुझे छोड़ दे। मैं, मैं यहाँ से बहुत दूर चला जाऊंगा औ...और....और फिर कभी लौट कर नहीं आऊँगा। मुझे मा....आफ कर दे मेरे भाई, प्लीज”। शशि घबराहट में बोलता चला गया। वह घबराहट से कांप रहा था। विवेक ने प्रतिउत्तर में सिर्फ उसे गहरी निगाहों से घूरा और एक कोने की तरफ जाकर कुछ लेने के लिए झुका। “म्म…..मैं जान...ता हूँ कि मैंने तेरे सा...आ....थ विश्वा....स...घात किया है लेकिन मैं तेरे से दया की भीख मांगता हूँ”। शशि फिर से गिड्गिड़ाया। उसका चेहरा डर और घबराहट से लाल हो चुका था। जबान लड़खड़ा रही थी और हाथ कांप रहे थे। विवेक ने उसकी बातों को अनसुना कर दिया। उसके हाथ में मोटी, कडक रस्सी को बांध कर बनाया हुआ एक हाथ बराबर मोटा व मजबूत रस्सा था। यह रस्सा छूने में सख्त और गठीला हो गया था। उसी को घूमा कर विवेक ने शशि के जांघों के बीचों-बीच नीचे से प्रहार किया। कुर्सी पर बैठने की जगह प्लास्टिक की जाली लगे होने के कारण वो प्रहार ठीक वहीं लगा और उतनी ही ज़ोर से लगा जितनी ज़ोर से विवेक ने मारने का प्रयास किया था। कमांडर विवेक का निशाना अचूक था और प्रहार मजबूत। शशि इस एक ही प्रहार से बिलबिला उठा था और वो कुर्सी समेत एक बार फिर एक तरफ गिर गया। उसकी चीखें दूर-दूर तक सुनी जा सकती थी। वो रो रहा था और मन ही मन विवेक के साथ किए विश्वासघात पर पछता रहा था। असहनीय दर्द उसकी आत्मा तक पहुँच रहा था। विवेक ने उसको कुर्सी समेत फिर से उठाया और शशि को ठीक उसी जगह ठीक उसी तरह से एक आघात और दिया। इस बार तो मानों शशि की जान ही निकल गयी थी। बहुत ज़ोर लगा कर चीखने की वजह से शशि का गला रुँध गया था। उसके शरीर की नसें तन गयी थी और उसकी हिम्मत जवाब देने लगी थी।

शशि अब उठने या खड़े होने के हालत में नहीं था। विवेक ने उसकी रस्सियाँ खोल दी और उसे जबरन सीधा खड़ा किया। अब विवेक के हाथ में दूसरा हथियार था। ये एक लोहे के डंडे पर कंटीली लोहे की जाली को बांध कर बनाया हुआ हथियार था। अब विवेक ने इस हथियार का इस्तेमाल करना शुरू किया। उसने शशि के नितबों और जांघों पर निरंतर चोट देना शुरू किया। एक-एक वार से शशि को मौत के दर्शन हो रहे थे। उसके शरीर से रक्त-धाराएँ फूट रही थी। शशि का रुदन और चीख़ें सन्नाटे को पूरी तरह चीर रही थी। शशि पूरी तरह से अशक्त महसूस कर रहा था। दर्द के मारे उसका बुरा हाल था और साँस संभाले नहीं संभल रही थी। भागने की तो छोड़ो चलने या बैठने की ताकत भी अब वो जुटा नहीं पा रहा था।

जी भर के पीट लेने के बाद विवेक शशि के चेहरे की तरफ बैठ गया। शशि जमीन पर अशक्त, अधखुली आँखों से विवेक की तरफ हाथ जोड़े देख भर रहा था। “तूने मेरा इंसानियत पर से विश्वास उठा दिया, तूने मेरी गृहस्थी उजाड़ दी, तूने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी और तुझे दया चाहिए! ये कैसी दोस्ती निभाई शशि तूने? तूने सब कुछ बर्बाद कर दिया है। लेकिन अब मैं तुझे बर्बाद कर दूँगा”। विवेक चिल्ला रहा था। थोड़ा रुक कर और शांत हो कर-“लेकिन उससे पहले तू मुझे ये बताएगा कि ये सब कब से चल रहा था”। शशि में कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं बची थी। शशि ने उसको हाथ के इशारे से कुछ देर रुकने को कहा।

15 मिनट में थोड़ा सामान्य होने पर शशि ने बोलना शुरू किया। “मैं और भाभी पिछले 3 महीने से ये खेल खेल रहे थे। एक बार ताऊ जी (विवेक के पिता) ने मुझसे एक दवाई मंगाई थी। बस वही देने तेरे घर आया था। घर पर कोई नहीं था भाभी को छोडकर। मेरे पूछने पर उन्होने बताया कि माँ-बाबूजी बाज़ार गए है। मैंने भाभी को दवाई दी और जैसे ही चलने को हुआ तो उन्होने कहा कि चाय तैयार है, पी कर जाइए। थोड़ी देर मैंने उनका इंतज़ार किया। लेकिन जब वो नहीं आई तो रसोई घर की तरफ मैंने कदम बढ़ा दिये। वह रसोई में नहीं थी और मेरे मुड़ते ही मैंने सामने वाले कमरे में उन्हें बिना कपड़ों के देखा। उनकी आँखों में आमंत्रण था। मैं बहक गया दोस्त और ये सिलसिला चल पड़ा”। ये सब बताते हुए शशि देख ही नहीं पाया कि विवेक एक ब्लेड का पैकेट खोल रहा है। जैसे ही शशि की नज़र विवेक पर पड़ी, विवेक ने उसके दोनों गालों पर ब्लेड से गहरे ज़ख्म बना दिये। अब शशि के चेहरे के पसीने और आंसुओं के साथ उसका खून भी मिल रहा था। शशि दर्द से बिलबिला रहा था। शरीर के हिस्सों से खून बहता देख उसकी सांस हलक तक आ गयी थी। उसे लगा कि आज उसका अंतिम दिन है। थोड़ी देर में विवेक ने शशि को एक बार फिर बेहोश कर दिया।

विवेक ने कल्पना को उसे बिना शर्त तलाक की अर्ज़ी लगाने के लिए मजबूर कर लिया था। कल्पना के पास दूसरा कोई रास्ता भी नहीं था। शशि के बयान का वीडियो वो बना चुका था। साथ ही उस रात का वीडियो भी उसके पास था। कल्पना जानती थी कि अगर वह तलाक के लिए न मानती तो इन्हीं विडियो को वो कोर्ट में उसके कल्पना से तलाक लेने की ठोस वजह दिखा सकता है। विवेक की माँ ने कल्पना की अच्छी-खासी धुलाई की थी। न मानने कि सूरत में ये फ़ौजी महिला उसे फिर से दिन में चाँद और तारे एक साथ दिखा सकती थी। कल्पना को ये बात साफ हो चुकी थी कि अब यहाँ से जल्द से जल्द निकलने में ही भलाई है। कल्पना को रातों-रात उसके मायके भिजवा दिया गया।

इधर जब शशि को होश आया तो उसने अपने आप को एक कीचड़ में पड़ा पाया। उसने उठ कर बैठने की कोशिश की लेकिन दर्द और चोटों के चलते वो ऐसा करने में असमर्थ था। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि शरीर का कौन सा हिस्सा ज्यादा दर्द कर रहा है। धीरे-धीरे जब उसने हिम्मत जुटाई और चीखना चाहा तो वो ऐसा भी कर नहीं पाया। विवेक ने उसकी जबान के साथ-साथ उसके हाथों और पैरों के अंगूठे काट डाले थे। लेकिन एक और जगह थी जहां विवेक ने उसे गहरा जख्म दिया था। जब उसने टटोलने का प्रयास किया तो दुख और दर्द से उसकी सोचने-समझने की शक्ति भी जवाब देने लगी। उसने ज़ोर-ज़ोर से हँसना शुरू कर दिया और कीचड़ में लोटने लगा। दरअसल विवेक ने उसे नपुंसक बना दिया था। अब वो किसी अपने के साथ घात करने लायक नहीं बचा था।

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