सरकारी योजना  Anupama Ravindra Singh Thakur

सरकारी योजना

सरकारी योजना के तहत प्राप्त धन को ऐसे कार्यों पर खर्च किया जाए, जिससे आम अदमी का जीवन स्तर बेहतर बने। परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता है।

आज बाज़ार में कुछ अधिक ही भीड़ थी।
श्रीगणेश जी के आगमन पर काफी चहल-पहल थी।
सड़क के किनारे भिन्न टोकरी में फल लिए बैठी उन स्त्रियों की ओर प्रतिदिन मेरी दृष्टि अनायास ही चली जाती है।
शरीर से कृश परंतु मन से मजबूत ये महिलाएँ प्रतिदिन तेज धूप, बारिश तथा ठंड का सामना करती दिखाई पड़ती। घर के सारे काम निपटाती और परिवार को आर्थिक रूप से सबल बनाने के इनके संघर्ष को देख ये मुझे अष्टभुजाओं वाली प्रतीत होती हैं। घर की आंतरिक समस्या हो या बाह्य समस्या या आर्थिक समस्या हो, यह अष्टभुजाओं वाली सब कुछ संभाल लेती हैं। इन्हीं विचारों में मैं आगे बढ़ ही रही थी कि मेरी चप्पल का पट्टा टूट गया और मुझे मजबूरन मोची के पास जाना पड़ा। वहीं चौक में सर पर एक छतरी लगाए, एक वृद्ध व्यक्ति अपने सामने लोहे की पेटी तथा खुरचन लेकर एक साधारण सा ढीला तथा मैला सा कुर्ता पहने, नीचे मुख किए अपने काम में तल्लीन था।

मैंने कुछ दूर से ही ऊँची आवाज़ में पूछा, इसका पट्टा सीने का कितना लेंगे? उसने सर ऊपर कर मेरी ओर देखा। 2 सेकंड कुछ सोचा और कहा 20 रूपए लगेंगे। मैंने पर्स में हाथ डाला और बिना कुछ प्रत्युत्तर दिए टटोलना शुरू किया। चार-पाँच मिनट तक पर्स में हाथ डाले मुझे टोटलता देख कर उससे रहा नहीं गया उसने पूछा क्या हुआ मैडम क्या टटोल रहे हैं आप? मैंने सकुचाते हुए कहा, मैं पैसे लेकर नहीं निकली। किसी खाने में 20 रुपये मिल जाते हैं तो वही देख रही थी। उसने कहा कोई बात नहीं बाद में दे देना।

उसकी उदारता देख मुझे अपना अस्तित्व बौना प्रतीत हुआ। मैंने पूछा, "आपका नाम क्या है?" एक ही शब्द में उत्तर मिला, "करीम।"
मैंने कहा, चाचा, आजकल इस फोन के कारण कोई भी पैसे नहीं रख रहा है। सब कुछ फोन से ही होने लगा है ।
वह कुछ नहीं बोला, मुस्कुराते हुए उसने मेरी ओर देखा, उसी समय मेरी दृष्टि उसकी आँखो पर पड़ी। उसकी एक आंख सामान्य थी परंतु दूसरी आँख गोटि की तरह भूरे रंग की थी। जिसका बबूल बाहर निकला हुआ प्रतीत हो रहा था। वह चप्पल को आंखों के नजदीक ले जाकर मुआयना करने लगा। मैंने आश्चर्य से पूछा, "क्या आपको एक आँख से दिखाई नहीं देता?"
उसने कहा, "नहीं इसमें मोतियाबिंद हो गया है।" मैं जानती थी, जिसके लिए एक समय का भोजन जुटाना मुश्किल है वह आँख का ऑपरेशन क्या खाक करवा पाएगा। फिर भी मैंने उत्सुकतावश पूछ ही लिया, "चाचा ऑपरेशन नहीं करावाया क्या आपने?"
उसने कहा, "यहाँ के प्रसिद्ध नेत्रालय से महात्मा फुले योजना के अंतर्गत दो बार मेरा ऑपरेशन किया जा चुका है फिर भी मुझे कुछ नहीं दिखता। डॉक्टरों से मैंने शिकायत भी की लेकिन होगा क्या, क्योंकि मेरे ओपरशन के नाम पर अस्पताल, दो बार स्कीम के पैसे खा चुका है।"

जिस अस्पताल का उल्लेख करीम चाचा ने किया था, वह नगर का एक प्रसिद्ध अस्पताल है।
मैं आश्चर्य से सोच में डूबी थी परंतु करीम चाचा अभी रुके नहीं थे उनकी पीड़ा उनके स्वर में स्पष्ट नज़र आ रही थी। वे कहने लगे, "मैं ही नहीं और भी कई हैं जिनका ऑपरेशन तो हुआ है पर रोशनी नहीं मिली।" मैंने कौतुहल से पूछा, "आप सब ने मिलकर क्यों नहीं शिकायत की?" उन्होंने कहा, "बेटी मैं तो तैयार था पर बाकी लोग डर गए। फिर मेरा साथ कौन देता? और बेटा मसला इंसानियत का है, डॉक्टर को खुदा के बराबर मानते हैं। अगर इस पेशे के लोग ही गद्दारी करेंगे तो बाकी लोगों का क्या कहेंगे?"
मैं निरूत्तर थी।
करीम चाचा की बातों में पीड़ा के साथ-साथ सच्चाई भी थी। सफेदपोश डॉक्टर जो जीवन दान के लिये प्रतिबध्द होते हैं, वे चन्द रुपयों के लिए किसी के साथ ऐसा छल कर सकते हैं, यह सोच भी नहीं सकते। सरकारी योजनाएँ बनती तो गरीब एवं निर्धन, पिछड़े वर्गों के लिए हैं परंतु उसका लाभ तो कोई और ही उठाता है और करीम चाचा जैसे लोग केवल शोषित बन कर रह जाते हैं। करीम चाचा अकेले नहीं, शहर जिले और देश में ऐसे हजारों लोग हैं जो आज मोतियाबिंद के कारण अपनी आँखों की रोशनी गँवा चुके हैं। सरकारी योजनाएँ उनके लिए उस मिठाई के समान हैं जो कांच में रखे रहती हैं, जिसे देख तो सभी सकते हैं पर केवल पैसों वाला ही ले सकता है।

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