स्त्री-मन  सलिल सरोज

स्त्री-मन

वैवाहिक जीवन में प्रेम के बदलते मायने

सिद्धान्त और भावना कॉलेज की कैंटीन में घंटों से बैठे हुए थे लेकिन उनकी अभी तक एक कॉफ़ी खत्म नहीं हुई थी। दोनों घंटों से एक दूसरे की आँखों में डूबकर उस रस का आनन्द ले रहे थे जो किसी कॉलेज की किसी भी कैंटीन में नहीं मिलता।

भावना और सिद्धान्त सामजशास्त्र में परास्नातक की पढ़ाई कर रहे थे। भावना, सिद्धान्त से एक साल जूनियर थी। भावना ने सिद्धान्त को पहली बार सेमिनार में देखा था। सिद्धान्त का नाम पुकारते ही पूरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। मानो कि कोई जनमानस का नेता अपने क्षेत्र के लोगों को संबोधित कर रहा हो। सिद्धान्त अपने सीनियर, जूनियर, शिक्षकों और अपने कॉलेज में बहुत लोकप्रिय था और यह बात ताली की हर एक गूँज से पता चल रही थी।

सिद्धान्त ने ज्यों ही माइक पकड़ा और बोलना शुरू किया, पूरे हॉल में शांति छा गई। मानो हर दर्शक और हर श्रोता उसके बोले हर शब्द को सुनना चाहता हो। सेमिनार का विषय था - "स्त्री का मन।" पूरी तरह से समाजशास्त्र का विषय तो मालूम नहीं होता था लेकिन उस दिन सिद्धान्त ने जिस तरह से बोलना शुरू किया, वो विषय समाजशास्त्र का ही हो कर रह गया।

"स्त्री का मन पढ़ने से ज्यादा छूने और महसूस करने को लालायित रहता है। पढ़ी हुई चीज़ें हम अक्सर भूल जाते हैं, लेकिन शिद्दत से महसूस की गई चीज़ जीवनपर्यन्त हमारे साथ चलती रहती है। स्त्री मन केवल उतने वक़्त के लिए ही अपना होता है जब तक वो किसी और को सब कुछ नहीं मान लेता और एक बार यह समर्पण आ जाए, फिर मौत ही अन्तिव पड़ाव है इस अद्भुत यात्रा का। स्त्री मन जो महसूस करता है उसे लिखने के लिए ग्रंथ या उकेरने के लिए कोई बड़ा कैनवास नहीं बल्कि एक प्रेमातुर दिल और विवेकशील बुद्धि की आवश्यकता होती है।" हर वाक्य के बाद तालियाँ बज रही थीं। भावना की तरह कितनी ही लड़कियाँ अब तक सिद्धान्त की कायल हो चुकी थीं। भावना तो मानो कहीं डूब गई हो, उसकी आँखें सिद्धान्त के चेहरे से हट ही नहीं रही थीं।

सिद्धान्त ने पानी पीने के लिए विराम लिया, तब तक भावना को लग चुका था कि ये जिस लड़की का जीवन साथी बन जाए, वो लड़की दुनिया की सबसे खुशनसीब लड़की होगी।

"इश्क़ में पहले इज़हार कर देना अच्छा होता है और कोशिश करके हासिल न कर पाना, न कोशिश करके न हासिल करने से ज्यादा काबिले तारीफ है"।

भावना ने पानी की बोतल पहुँचाने के बहाने अपनी फीलिंग एक चिट में लिख कर सिद्धान्त को थमा दी। सिद्धांत ने चिट खोला और पढ़ा-"स्त्री मन को तुमसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता। अब मेरी आँखों में देख कर बोलो और बताओ कि इस स्त्री का मन क्या कहता है।"

भावना अभी सीढ़ियों से उतर ही रही थी कि सिद्धान्त ने उसकी तरफ देखा और उसके बैठ जाने तक उसको देखता रहा। बहुत ही साधारण सी दिखने वाली लड़की की असाधारण बात उसके दिल में घर कर गई।

अब सिद्धान्त ने भावना की आँखों में देख कर बोलना शुरू किया। "एक स्त्री का मन जो पुरुष पढ़ सकता है, वो दुनिया के तमाम रहस्य हल कर सकता है। स्त्री मन कमजोर नहीं है लेकिन उसे भी एक हमसफर की चाहत हमेशा रहती है। स्त्री मन अधिकार और कर्तव्य से अधिक समर्पण और प्रेम से आकर्षित होता है। यह सृष्टि की रचना मान ली जाए या स्त्रियों के मन की आन्तरिक इच्छा, पर यह सत्य है।"

मैं इन्हीं शब्दों के साथ अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ और सबसे अपील करता हूँ कि स्त्रियों को महसूस करें, उन्हें केवल पढ़ें नहीं। सेमिनार खत्म हुआ और सिद्धान्त ज्यों ही हॉल से बाहर निकला तो पहली प्रशंसा किसी और से नहीं बल्कि भावना की तरफ से ही आई।

सिद्धान्त और भावना कैंटीन में कॉफी पीने गए और दोनों एक दूसरे को एक टक देखते रहे। मुलाकातों का सिलसिला बढ़ा। दोनों रोज़ मिलने लगे, जानने लगे और एक दूसरे से प्यार करने लगे। सिद्धान्त को भावना का भोलापन भा गया और भावना को सिद्धान्त के स्त्रियों के बारे में विचार ने कायल कर दिया।

कॉलेज ख़त्म हुआ और दोनों ने अपनी डिग्रियाँ प्राप्त की। सिद्धान्त को उसी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी मिल गई, भावना की भी नौकरी लगी पर उसने सिद्धान्त की प्रगति और घर की शांति के लिए नौकरी नहीं की। "स्त्री, पुरुष की समानता करनी शुरू कर दे तो घर ही सबसे पहले टूटता है", यह बात भावना जानती थी और मानती भी थी।

प्यार में कही गई हर बात प्यारी लगती है, खामियाँ छुप जाती हैं और जिम्मेदारियाँ खेल का विषय लगता है। किताब में पढ़ी गई बातें जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पे हिचकोले खाने लगती हैं। शादी के बाद इनके जीवन में भी ऐसा ही कुछ शुरू हो गया था, सिद्धान्त अपने कॉलेज के कामों में इतना व्यस्त हुआ कि उसका वैवाहिक जीवन जो कि भावना का भी था, कहीं खो सा गया। भावना खुद को स्टोर रूम में जमा कबाड़ की तरह महसूस करने लगी, जो घर में होता तो है लेकिन उसकी ज़रुरत किसी को नहीं होती।

आज सुबह जब सिद्धान्त कॉलेज जाने के लिए तैयार हो रहा था तो खुद के न होने की भावना ने भावना का धैर्य तोड़ दिया और वो चीख पड़ी-"सिद्धान्त, क्या तुम वही हो जिसको मैं चाहती हूँ, तुम्हारे स्त्री को समझने की बेजोड़ क्षमता से प्रभावित होकर मैं तुम्हारे साथ आई और आज जब मेरी इच्छाएँ चिल्लाती हैं तो भी तुम्हें सुनाई नहीं देती। क्या यह सचमुच सच है कि शादी के बाद सब बदल जाता है-समय, परिस्थिति और इंसान भी। मेरी बात अब तुम क्यों नहीं समझ पाते, मेरी तकलीफ से तुम्हें क्यों दर्द नहीं होता, तुम्हारे पास मेरे लिए क्यों समय नहीं होता, मैं तुम्हारे लिए ज़िन्दा भी हूँ या नहीं।" इतना कहकर भावना रोने लगी और खुद के चुनाव को कोसने लगी।

सिद्धान्त चुपचाप सुनता रहा और खाना खत्म करके उठा और बोला -"हर कही गई बात को अमल में लाना इंसान के हद में नहीं होता और क्या सिर्फ मैं बदल गया हूँ, दिन रात व्यस्त होके तुम्हारी खुशियों के लिए ही कमाता हूँ और तुम फिर भी मेरे साथ आज खुश नहीं।

"भावना, सेमिनार में कही बातों से अगर जीवन तय होता तो आज सामाज कहीं और होता। अब मुझे खुद पर भी शक होता है कि मैं क्या स्त्री मन को समझ पाता हूँ या क्या मैं खुद को भी नहीं समझ पाता।" सिद्धान्त यह कहता हुआ घर से निकल गया और रोती हुई भावना के दिमाग में किसी की कही मात्र एक बात घूमती रही- "स्त्री मन पढ़ने की नहीं, महसूस करने की चाहत रखती है।"

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