दोहरी जिन्दगी  सलिल सरोज

दोहरी जिन्दगी

शहरी जीवन में नौकरी करते हुए आदमी के अन्तर्मन की पीड़ा का चित्रपट ।

बेटा, हर बार की तरह इस बार भी तुम्हारी माँ मुझसे आँखों में वही विश्वास लेकर कि मेरा बेटा तो मेरी हर बात मानता है, पूछ रही थी कि छठ में घर आओगे कि नहीं?

पिताजी, आप तो जानते हैं कि माँ को समझाना कितना मुश्किल हो जाता है। मेरी नौकरी से मुझे फुर्सत नहीं मिलती। आप लोग ही तो चाहते थे कि बेटा पढ़-लिख कर बहुत बड़ा आदमी बन जाए। पिताजी, जो नौकरी कर के बड़ा आदमी बनने की जाद्दोजहद करते हैं, उन्हें अपने लिए ही समय निकालना मुश्किल होता चला जाता है। और अभी तो समय भी ऐसा चल रहा है कि बच्चों को लेकर कहीं आना जाना अपनी मौत को दावत देने जैसा है।

पर बेटा, तुम्हें छुट्टियाँ भी तो मिलती होंगी।

पिताजी, छुट्टियाँ जरूर मिलती हैं। लेकिन उन छुट्टियों में बच्चों के स्कूल का काम, घर का काम, अपनी दवा, सोसाइटी के तमाम झमेलों का निपटारा, आप लोगों के लिए हस्पताल में डॉक्टर से मिलने के लिए घंटों लाईन में खड़े रहना, गाड़ी ठीक कराना, किताबों के लिए कभी कहानी तो कभी लेख लिखने के लिए समय निकालना और भी तमाम बीस तरह के काम सामने खड़े हो जाते हैं। और आपको तो पता है कि आज भी घर तक पहुँचने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है। पहले ट्रेन या हवाई जहाज से जिला मुख्यालय तक पहुँचोम, फिर भाड़े की गाड़ी में या ठसाठस बस में धक्के खाते और तमाम बीमारियों का सामना करते हुए अपने शहर के बस स्टैंड तक। फिर वहाँ से रिक्शा या ऑटो करके घर को जोड़ने वाली पगडंडी तक पहुँचो और फिर तीन-तीन बैग खींचते हुए घर में घुसो। और यह सब तब ही सम्भव हो पाएगा जब 3 से 4 महीने पहले टिकट कन्फ़र्म हो। टिकट कन्फ़र्म करने के लिए भी कितने दलालों से मिलना पड़ता है या सरकारी जुगाड़ बैठाने पड़ते हैं, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है।

तो फिर बेटा, बहू और बच्चों को तो भेज ही सकते हो।

पिताजी, आप लोग ही तो चाहते थे कि बहू पढ़ी-लिखी आए और नौकरी करे तो बच्चों का भविष्य बेहतर होगा और किसी पर ज्यादा दवाब नहीं आएगा। आपकी बहू प्राइवेट नौकरी करती है, जहाँ छुट्टियाँ ना के बराबर मिलती हैं। उसे हमारे लिए समय नहीं मिलता तो फिर इतना बड़ा छठ का त्योहार करने के लिए समय कहाँ से मिलेगा। लेकिन ऐसी बात नहीं कि उसे पर्व-त्योहार पसंद नहीं या इन सब में शामिल नहीं होना चाहती। यहाँ आस-पड़ोस में भी कहीं कोई पर्व मनाया जाता है और उसके पास समय होता है तो वह उसको पूरे परम्परा के साथ करती है और इस तरह की आधी-अधूरी जिन्दगी पर रोने लगती है। बड़ी शहरों में नौकरियाँ तो मिल जाती हैं लेकिन सुख-चैन नहीं मिल पाता।

तो बेटा, यहीं आकर कोई कोचिंग सेंटर जैसा कुछ क्यों नहीं कर लेते?

पिताजी, आपसे कुछ छिपा हुआ नहीं है। आप ने खुद भी तो पढ़ाया है। कितने बच्चे समय पर पैसा देते हैं और उतने भी पैसे देने के लिए लोगों को कितनी बार कहना पड़ता है। इसके अलावे बच्चों की अच्छी पढ़ाई और बाकी सुविधाएँ भी तो अपने शहर में अभी तक नदारद हैं। पढ़ाई के अच्छी लाइब्रेरी नहीं, खेलने के लिए पार्क नहीं, मनोरंजन के लिए सिनेमाहॉल या मॉल नहीं, पत्रिकाओं की दुकानें नहीं और अपराध का वही रवैया ।

बेटा, मैं तो जैसे तैसे समझ जाऊँगा, लेकिन तुम्हारी माँ तो अब यह मान बैठी है कि बच्चे जब तक बड़े नहीं होते तब तक ही अपने रहते हैं लेकिन वो बच्चे माँ बाप के लिए हमेशा अपने रहते हैं।

ऐसा नहीं है पिताजी कि हम लोग पत्थर दिल हैं या हमें आप लोगों की याद नहीं आती। जिम्मेदारियाँ बहुत दूसरी सुविधाओं और सुख को निगल जाती हैं। मुझे अब भी याद है कि मैं कितनी दफे कहता था माँ रोज़ नई साड़ी पहना करो, पिताजी आप पर यह नेहरु कोट अच्छा लगता है, अमरूद के पेड़ों पर चढ़कर अमरूद तोड़ना, घंटों कहानियाँ सुनना और सुनाना सब याद आता है और आँखें भर आती हैं। बहुत कुछ है जो कह नहीं पाता। नौकरी ने बहुत कुछ दिया तो बहुत कुछ छीन भी लिया। कितनी ही असामयिक बीमारियाँ, समय से पहले चेहरे पे झुर्रियों की बैठक होने लगी है, खाने पीने में स्वाद नहीं आता, बेफ़िक्री वाली नींद नहीं, बस हर वक़्त किसी न किसी चीज़ की चिन्ता सताए रहती है, मन अशांत रहता है । मेरा भी मन करता है एक बार को सब छोड़ कर कहीं भाग जाऊँ और फिर से बच्चा हो जाऊँ, ताकि इन सब परेशानियों से दूर हो सकूँ। पर मेरे बाद मेरे बच्चों और बीवी को कौन देखेगा, आपके दवा का खर्चा कहाँ से आएगा, यह सब सोच कर अपने मन को मारना पड़ता है, और दोहरी जिन्दगी जीनी पड़ती है। मैं जानता हूँ पिताजी, पीछे से माँ क्या बोल रही हैं।

क्या बोल रही है, बेटा?

यही कि हर बार की तरह इस बार भी मैं नहीं आऊँगा।

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